पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५०२

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दूसरी सखी-तो क्या? देवसेना-तुम सब भी भाभी के साथ मिल गई हो। क्यों भाभी गाऊँ वह गीत ? ? जयमाला-मेरी प्यारी | तू गाती है। अहा ! बड़ी-बडी आँखें तो बरसाती ताल-सी लहरा रही है। तू दुखी होती है, मैं जाती हूँ। अरी ! तुम सब इसे हंसाओ। (जाती है) देवसेना -क्या महारथी हार कर भगे ! अब तुम सब क्षुद्र सैनिको की पारी है ? अच्छा तो आओ। पहलो सखो-नही, राजकुमारी | मैं पूछती हूँ कि सम्राट् ने तुमसे कभी प्रार्थना की थी? दूसरी सखी-हाँ, तभी तो प्रेम का सुख है तीसरी सखी-तो क्या मेरी राजकुमारी स्वयं प्रार्थिनी होंगी? हूँ देवसेना-प्रार्थना किसने की है, यह रहस्य की बात है -क्यो कहूँ ? प्रार्थना हुई है मालव की ओर से, लोग कहेगे कि मालव देकर देवसेना का ब्याह किया जा रहा है। पहली सखी - न कहा, तब फिर क्या -हरी-हरी कोपलो की टट्टी मे फल खिल रहा हे और क्या । देवसेना -तेरा मुंह काला, और क्या ? निर्दय होकर आघात मत कर, मर्म बडा कोमल है। कोई दूसरी हँसी तुझे नही आती ? (मुंह फेर लेती है) दूमरी सखी- लक्ष्यभेद ठीक हुआ-सा देखती हूं। देवसेना-क्यो घाव पर नमक छिडकती है ? मैने कभी उनमे प्रेम की चर्चा करके उनका अपमान नहीं होने दिया है। नीरव जीवन और एकात व्याकुलता- कचोटने का सुख मिलता है। जब हृदय मे रुदन का म्वर उठता है, तभी संगीत की वीणा मिला लेती हूँ । उसी मे सब छिप जाता है । (आँखों से ऑसू बहता है) तीसरी सखी-है-है क्या तुम रोती हो ? मेरा अपराध क्षमा करो ! देवसेना-(सिसकती हुई) नही प्यारी सखी ! आज ही मै प्रेम के नाम पर जी खोलकर रोती हूँ, बस, फिर नही। यह एक क्षण का रुदन अनंत स्वर्ग का सृजन करेगा। दूसरी सखी-तुम्हे इतना दु.ख है, मैं यह कल्पना भी न कर सकी थी। देवसेना-(सम्हलकर) यही तू भूलती है। मुझे तो इसीमे सुख मिलता है मेरा हृदय मुझ से अनुरोध करता है, मचलता है, रूठता है मै उसे मनाती हूँ। आँखे प्रणय-कलह उत्पन्न कराती है, चित्त उत्तेजित करना है. बुद्धि झिड़कती है, कान कुछ ४८२: प्रसाद वाङ्मय