पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५०३

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सुनते ही नहीं ! मैं सबको समझाती हूँ, विवाद मिटाती हूँ। सखी! फिर भी मैं इसी झगड़ाल कुटुंब में गृहस्थी सम्हाल कर, स्वस्थ होकर, बैठती हूँ। तीसरी सखी-आश्चर्य ! राजकुमारी ! तुम्हारे हृदय में एक बरसाती नदी वेग से भरी है ! देवसेना-कूलों मे उफनकर बहने वाली नदी, तुमुल तरंग, प्रचंड पवन और भयानक वर्षा ! परंतु उसमें भी नाव चलानी ही होगी। [पहली सखी गाती है] मांझी ! साहस है-खे लोगे ? जर्जर तरी भरी पथिकों से सड़ में क्या खोलोगे? अलस नील-घन की छाया में- जलजालों की छल-माया में अपना बल तोलोगे? अनजाने तट की मदमाती- लहरें, क्षितिज चूमती आती-ये झटके मेलोगे? मांझी ? साहस है-खे लोगे? [भीमवर्मा का प्रवेश भीमवर्मा-बहिन ! शक-मंडल से विजय का समाचार आया है। देवसेना-भगवान् की दया है । भीमवर्मा-परंतु महाराजपुत्र गोविंदगुप्त वीरगति को प्राप्त हुए, यह बड़ा देवसेना-वे धन्य है ! भीमवर्मा-वीर-शय्या पर सोते-सोते उन्होने अनुरोध किया कि महाराज बंधुवर्मा गुप्त-साम्राज्य के महाबलाधिकृत बनाये जायें, इसलिा अभी वे स्कंधावार में ठहरेंगे। उनका आना अभी नही हो सकता। और भी कुछ सुना देवसेना ? देवसेना- भीमवर्मा-सम्राट् ने तुम्हें बचाने के पुरस्कार-स्वरूप मातृगुप्त को काश्मीर का शासक बना दिया है। गांधारवंशी राजा अब वहाँ नही हैं। काश्मीर अब साम्राज्य के अंतर्गत हो गया है। देवसेना-सम्राट् की महानुभावता है । भाई ! मेरे प्राणों का इतना मूल्य ? भीमवर्मा-आर्य-साम्राज्य का उद्धार हुआ है। बहिन ! सिंधु प्रदेश के म्लेच्छ राज्य का ध्वंस हो गया है। प्रवीर सम्राट् स्कंदगुप्त ने विक्रमारित्य को उपाधि धारण की है। गौ, ब्राह्मण और देवताओ पो ओर कोई भी आततायी आँख उठा कर नही देखता। लोहित्य से सिंधु तक हिमालय की कंदराओं में भी स्वच्छंदतापूर्वक सामगान होने लगा । धन्य है हम लोग जो इस दृश्य को देखने के लिए जीवित हैं । स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४८३ -क्या?