पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५०४

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. देवसेना-मंगलमय भगवान् सब मंगल करेगे। भाई, साहस चाहिये, कोई वस्तु असंभव नही। भीमवर्मा-उत्तरापय के सुशासन की व्यवस्था करके परम भट्टारक शीघ्र आवेगे। मुझे अभी स्नान करना है:-

-जाता हूँ।

देवसेना-आई ! तुम अपने शरीर के लिए बड़े ही निश्चित रहते हो। और कामो के लिए तो... [भीम हँसता हुआ जाता है/मुद्गल का प्रवेश] मुद्गल-जो है सो काणाम से करके--यह नो अपने से नही हो सकता। उहूँ, जब कोई न मिला तो फूटे ढोल की तरह मेरे गले पड़ी ! देवसेना -क्या है मुद्गल मुद्गल-वही-वही, सीता का सखी मदोदरी की नानी त्रिजटा ! कहाँ है मातृगुप्त ज्योतिषी की दुम ! अपने को कवि भी लगाता था | मेरी कुंडली मिलाई या कि मुझे मिट्टी मे मिलाया ! शाप दूंगा--एक शाप ! दाँत पीसकर, हाथ उठाकर, शिखा वोलते हुए चाणक्य का लकडदादा बन जाऊँगा। मुझे इस झंझट मे फैमा दिया | उसने क्यों मेरा ब्याह कराया..? देवसेना--तो क्या बुरा किया ? मुद्गल --झग्व मारा, जो है सो काणाम से करके । देवसेना--अरे व्याह भी तुम्हारा होता मुद्गल--न होता तो क्या इससे भी बुरा रहता? बाबा अब तो मै इस पर भी प्रस्तुत है कि कोई इसको फेर ले। परतु यह हत्या कौन अपने पल्ले बाँधेगा ! (सब हंसती हैं) देवसेना--आज कौन-सी तिथि है ? एकादशी तो नही है ? मुद्गल- हाँ, यजमान के घर एकादशी और मेरे पारण की द्वादशी क्योकि ठीक मध्याह्न मे एकादशी के ऊपर द्वादशी चढ बैठनी है, उसका गला दवा देती है, पेट पचकने लगता है ! देवसेना-अच्छा, आज तुम्हारा निमंत्रण है--तुम्हारी स्त्री के साथ । मुद्गल--जो है सो देवता प्रसन्न हो, आपका कल्याण हो : फिर शीघ्रता होनी चाहिये । पुण्यकाल बीत न जाय " चलिये मैं उसे तुला लेता हूँ। [सब जाता है] दृश्या न्त र ? ४८४ :प्रमाद वाङ्मय