पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५०९

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चतुर्थ अंक प्रथम दृश्य ? [कुसुमपुर के प्रकोष्ठ में विजयां और अनंतदेवी] अनन्तदेवी --क्या म्हा विजया--मैं आज ही पासा पलट सकती हूँ | जो झूला ऊपर उठ रहा है, उसे एक ही झटके मे पृथ्वी चूमने के लिए विवश कर सकती हूँ। अनन्तदेवी-क्यो? इतनी उत्तेजना वयो है ? सुनूँ भी तो। विजया--समझ जाओ। अनन्तदेवी--नही, स्पष्ट कहो। विजया-भटार्क मेरा हे ! अनन्तदेवी--तो? विजया-उस राह से दूसरो को हटना हागा। अन तदेवी--कौन छीन रहा है । विजया--एक पाप-पंक मै फैमी हुई निर्लज- नारी। क्या उसका नाम भी बताना होगा? समझी, नही तो साम्राज्य का स्वप्न गला दबा कर भंग कर दिया जायगा। अनन्तदेवी--(हँसती हुई) मूर्ख ग्मणी । तेग भटार्क केवल मेरे कार्य-साधन का अस्त्र है, और कुछ नही । वह पुरगुप्त के ऊंचे सिहामन की सीढी है--समझी ? विजया--समझी और तुम भी जान लो कि तुम्हारा नाश समीप है। अनन्तदेवो--(बात बनाती हुई) क्या तुम पुरगुप्त . Tथ सिंहासन पर नही बैठना चाहती हो ? क्यो--वह भी तो कुमारगृप्त का पुत्र है विजया--हाँ वह कुमारगुप्त का पुत्र है, परतु वह नुग्दारे गर्भ से उत्पन्न है ! तुमसे उत्पन्न हुई संतान--छि । अनन्तदेवी --क्या कहा ? समझ कर कहना। विज़या--कहती हूँ--और फिर कहूँगी। प्रलोभन से, धमकी से, भय से, कोई भी मुझको भटार्क से वचित नही कर सकता। प्रणय-वचिता स्त्रियां अपनी राह के रोड़ों-विघ्नो को दूर करने के लिए वज्र से भी दृढ होती है। हृदय को छीन लेने वाली स्त्री के प्रति हृतसर्वस्वा रमणी पहाडी नदियो से भयानक, ज्वालामुखी के विस्फोट से बीभत्स और प्रलय की अनल-सखा मे भी लहरदार होती है। मुझे तुम्हारा सिंहासन नही चाहिये । मुझे क्षुद्र पुरगुप्त के विलास-जर्जर मन यौवन में ही स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४८९ ?