पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५११

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नायक अपना रूप, धन, यौवन दूसरे को दान करके उन्हे नीचा दिखाने के लिए ? स्वार्थपूर्ण मनुष्यों की प्रतारणा में पड़कर वो दिया--इस लोक का सुख, उस लोक की शांति ! ओह ! -शांत हो! विजया-शाति कहाँ ? अपने को दण्ड देने के लिए मैं स्वयं उनसे अलग हुई उन्हें दिखाने के लिए--'मैं भी कुछ हू ?' अपनी भूल थी, उसे अभिमान से उनके सिर दोष के रूप में मढ़ रक्खा था। उन पर झठा अभियोग लगाकर, नीच-हृदय को नित्य उत्तेजित कर रही थी--अब उसका फल मिला। नायक-रमणी ! भूला हुआ लौट आता है, खोया मिल जाता है, परन्तु जो जान-बूझकर भूल-भुलैया तोडने के अभिमान से उसमे घुसता है, वह उसी चक्रव्यूह मे स्वयं मरता है, दूसरो को भी मारता है। शाति का--कल्याण का मार्ग उन्मुक्त है। द्रोह को छोड दो, स्वार्थ को विस्मृत करो, मब तुम्हारा है । विजया-(सिसकती हुई) मैं अनाथ निस्सहाय ह । नायक-(बनावटी रूप उतारते हुए) मैं शर्वनाग हुँ--सम्राट का अनुचर । मगध की परिस्थिति देख कर अपने विषय अन्तर्वद को लौट रहा हूँ। विजया--क्या अन्तर्वेद के विषयपति गर्वनाग? शर्वनाग-हां, परन्तु देश पर एक भीषण आतंक । भटार्क की पिशाचलीला सफल होना चाहती है। विजया । चलो, देश के प्रत्येक बच्चे, बूढे और युवक को उसकी भलाई मे लगाना होगा, कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना होगा। आओ, पदि हम राजसिंहासन न प्रस्तुत कर सके तो हमे अधीर न होना चाहिए। हम देश की प्रत्येक गली को झाड़ देकर ही इतना स्वच्छ कर दे कि उस पर चलनेवाले राजमार्ग का सुख पावे ! विजया--(कुछ सोचकर) तुमने सच कहा ! सबको क याण के शुभागमन के लिए कटिबद्ध होना चाहिये । चलो--(दोनों का प्रस्थान दृश्यांतर) द्वितीय दृश्य [भटार्क का शिविर नर्तकी गाती है] भाव-निधि में लहरियाँ उठती तभी, भूल कर भी जब स्मरण होता कभी। मधुर मुरली फूंक दी तुमने भला, नींद मुझको आ चली थी बस अभी। सब रगों में फिर रही हैं बिजलियाँ, नील नीरद ! क्या न धरसोगे कभी ? एक झोंका और मलयानिल अहा ! क्षुद्र कलिका है खिली जाती अभी। कौन मर-मर कर जियेगा इस तरह, यह समस्या हल न होगी क्या कभी? स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४९१