पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१२

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? [कमला और देवकी का प्रवेश] देवकी-भटार्क ! कहां है मेरा सर्वस्व ? बता दे-मेरे आनद का उत्सव, मेरी आशा का सहारा-कहाँ है ? भटार्क-कौन? कमला-कृतघ्न ! नही देखता है, यह वही देवी है-जिन्होने तेरे नारकीय अपराध को क्षमा किया था--जिन्होने तुम-से घिनौने कीडे को भी मरने से बचाया था, वही-वही, देव-प्रतिमा महादेवी देवकी। भटार्क--(पहचान कर) कौन-मेरी मां ! कमला-तू कह सकता है। परतु मुझे तुमको पुत्र कहने मे संकोच होता है, लज्जा से गडी जा रही है। जिस जननी की सतान-जिसका अभागा पुत्र-ऐसा देशद्रोही हो, उसको क्या मुख दिखाना चाहिये ? आह भटार्क । भटार्क- --राजमाता और मेरी माता देवकी- -बता भटार्क । वह आर्यावर्त का रत्न कहाँ है ? देश का बिना दाम का सेवक, वह जन-साध रण क हृदय का स्वामी--कहाँ है ? उससे शत्रुता करते हुए तुझे-- कमला--बोल दे भटार्क । भटार्क --क्या कहू--कुभा की क्षब्ध लहरो से पूछो--हिमवान की गल जाने वाली बर्फ से पूछो कि वह कहां है-मैं नही" देवकी --आह | गया मेरा स्कद- [गिरती है-मृत्यु] कमला-(उसे सम्हालती हुई) देख पिशाच--एक बार अपनी विजय पर प्रसन्नता से खिलखिला ले-नीच ! पुण्य-प्रतिमा को, स्त्रियो की गरिमा को, धूल मे लोटता हुआ देखकर एक बार हृदय खोल कर हँस ले। हा देवी ! भटार्क -क्या ! (भयभीत होकर देखता है) कमला--इस यत्रणा और प्रतारणा से भरे हुए ससार की पिशाचभूमि को छोड कर अक्षय लोक को गई, और तू जीता रहा--सुखी घरो मे आग लगाने, हाहाकार मचाने और देश को अनाथ बनाकर उमकी दुर्दशा कराने के लिए नरक के कीडे । तू जीता रहा भटार्क-मां अधिक न कहो । साम्राज्य के विरुद्ध कोई अपराध करने का मेरा उद्देश्य नहीं था, केवल पुरगुप्त को सिंहासन पर बिठाने की प्रतीशा से प्रेरित होकर मैंने यह किया । स्कंदगुप्त न सही, पुरगुप्त सम्राट् होगा। कमला-अरे मूर्ख । अपनी तुच्छ बुद्धि को सत्य मानकर, उसके दर्प मे भूल कर, मनुष्य कितना बड़ा अपराध कर सकता है ! पामर ! तू सम्राटो का नियामक -मेरा प्राण ? ४९२ : प्रसाद वाङ्मय