पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१३

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बन गया? मैंने भूल की सूतिका-गृह में ही तेरा गला घोंट कर क्यों न मार डाला ! आत्म-हत्या के अतिरिक्त अब कोई प्रायश्चित्त नही । भटाक-मां, क्षमा करो। आज से मैंने शस्त्र-त्याग किया। मैं इस संघर्ष से अलग हूं, अब अपनी दुर्बुद्धि से तुम्हें कष्ट न पहुँचाऊंगा । (तलवार डाल देता है) कमला-जूने विलंब किया भटार्क ! महादेवी--एक दिन जिनके नाम पर गुप्त साम्राज्य नतमस्तक होता था, आज उसकी अंत्येष्टि-क्रिया के लिए बोई उपाय नहीं !""हा दुर्दैव ! भटार्क-(ताली बजाता है, सैनिक आते हैं) महादेवी की अंत्येष्टि-क्रिया राज-सम्मान से होनी चाहिये । चलो, शीघ्रता करो ! [देवकी के शव को एक ऊँचे स्थान पर दोनों मिलकर रखते हैं] कमला--भटार्क ! इस पुण्य-चरण के स्पर्श से, मंभव है, ते। पाप छूट जाय ! [भटार्क और कमला पर तीव्र आलोक में दृश्यांतर] तृतीय दृश्य [काश्मीर-न्यायाधिकरण में मातृगुप्त, एक स्त्री और दंडनायक] मातृगुप्त-नंदीग्राम के दंडनायक--देवनंद ! यह क्या है ! देवनन्द--कुमारामात्य की जय हो ! बहुत परिश्रम करने पर भी मैं इस रमणी के अपहृत धन का पता न लगा सका। इसमे मेरा अपराध अधिक नहीं है। मातृगुप्त-फिर किसका है ? तुम गुप्त-साम्राज्य का विधान भूल गये ! प्रजा की रक्षा के लिए 'कर' लिया जाता है। यदि तुम उनकी रक्षा न कर सके, तो वह अर्थ तुम्हारी भृति से कट कर इस रमणी को मिलेगा। देवनन्द-परन्तु वह इतना अधिक है कि मेरे जीवन भर की भृति से भी उसका भरना असम्भव है। मातृगुप्त-- --नव राज-कोष' उसे देगा, और तुम उमका फल भोगोगे । देवनन्द--परन्तु मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूं, इसमे मेरा अपराध अधिक नही है। यह श्रीनगर की सबसे अधिक समृद्धिशालिनी वेश्या-अपने अन्तरंग लोगों का परिचय भी नही बताती, फिर मैं कैसे पता लगाऊँ ? गुप्तचर भी थक गये ! मातृगुप्त-हो, इसका नाम मैं भूल गया। देवनन्द--मालिनी। मातृगुप्त-क्या ! मालिनी ? (कुछ सोचता हुआ) अच्छा जाओ कोषाध्यक्ष को भेज दो। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४९३