पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१५

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निर्वासित प्राणियों को अन्नदान देकर संतुष्ट करेंगी और आर्य जाति अपने डेढ़ सबल हाथों में शस्त्र-ग्रहण करके पुण्य का पुरस्कार और पाप का तिरस्कार करती हुई, अचल हिमालय की भांति सिर ऊंचा किये, विश्व को सदाचरण के लिए सावधान करती रहेगी, आलस्य-सिंधु में शेष-पर्यकशायी सुषुप्तिनाथ जागेगे, सिंधु में हलचल होगी, रत्नाकर से रत्नराशियाँ आर्यावर्त की वेला-भूमि पर निछावर होंगी। उद्बोधन के गीत गाये-हृदय के उद्गार सुनाये जायेंगे-परंतु पासा पलट कर भी न पलटा ! प्रवीर उदार-हृदय स्कंदगुप्त कहाँ है ? तब, काश्मीर ! तुझसे विदा । [प्रस्थान/दृश्यान्तर]] चतुर्थ दृश्य [नगर प्रांत के पथ में धातुसेन और प्रख्यातकोति] प्रख्यातकीति-प्रिय वयस्य ! आज तुम्हे आये तीन दिन हुए, क्या सिंहल का राज्य तुम्हे भारत-पर्यटन के सामने तुच्छ प्रतीत होता है ? धातमेम--भारत समग्र विश्व का है, और संपूर्ण वसुधरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है। अनादि काल से ज्ञान की, मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है। वसुंधरा का हृदय--भारत--किय मूर्व को प्यारा नही है ? तुम देखते नही कि विश्व का सबसे ऊंचा शृंग इसके सिरहाने, और गभीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे है। एक-से-एक सुन्दर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर मे चित्रित कर रक्खा है। भारत के कल्याण के लिए मेरा सर्वस्व अर्पित है। कितु देखता हू, बौद्ध जनता और संघ भी साम्राज्य के विरुद्ध है। महाबोधि-विहार के संघ-महास्थविर ने निर्वाण-लाभ किया है, उस पद के उपयुक्त भारत-भर मे केवल प्रख्यातकीत्ति है । तुमसे संघ की मलिनता बहुत-कुछ धुल जायगी । प्रख्यातकीति--राजमित्र ! मुझे क्षमा कीजिये। मै धर्मलाभ करने के लिए भिक्षु हुआ हू । महास्थविर बनने के लिए नही। धातुसेन-मित्र ! मै मातृप्त से मिलना चाहता हूं। प्रख्यातकोत्ति [--वह तो विरक्त होकर घूम रहा है। धातुसेन--तुमको मेरे साथ काश्मीर चलना होगा। प्रख्यातकीत्ति [--पर अभी तो कुछ दिन ठहरोगे ? धातुसेन--जहाँ तक सभव हो शीघ्र चलो। [एक भिक्षु का प्रवेश भिक्षु--आचार्य ? महान् अनर्थ । प्रख्यातकीति- क्या है ? कुछ कहो भी ? स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४९५