पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१७

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होगी। रक्तपिपासु दुद्दीत ब्राह्मणदेव ! तुम्हारी पिपासा हम अपने रुधिर से शांत करेंगे। [धातुसेन और प्रख्यातकीर्ति का प्रवेश] धातुसेन--अहंकारमूलक आत्मवाद का खंडन करके गौतम ने विश्वात्मवाद को नष्ट नहीं किया। यदि वैसा करते तो इतनी करुणा की क्या-क्या आवश्यकता थी? उपनिषदों के 'नेति-नेति' से ही गौतम का अनात्मवाद पूर्ण है। यह प्राचीन महर्षियों का कथित सिद्धांत-मध्यमा-प्रतिपदा के नाम से संसार में प्रचारित हुआ, व्यक्तिरूप में आत्मा के सदृश कुछ नही है। वह एक सुधार था- --उसके लिए रक्तपात क्यों? दंडनायक-देखो, यदि ये हठी लोग कुछ तुम्हारे समझाने से मान जार्य, अन्यथा यहाँ बलि न होने दूंगा ब्राह्मण-क्यों न होने दोगे--अधार्मिक शासक ! क्यों न होने दोगे? आज गुप्त कुचक्रों से गुप्त-साम्राज्य शिथिल है। कोई क्षत्रिय राजा नही जो ब्राह्मण के धर्मसी रक्षा कर सके--धर्माचरण के लिए अपने राजकुमारों को तपस्वियों की रक्षा में नियुक्त करे । आह धर्मदेव ! तुम कहाँ हो ? धातुसेन–सप्तसिंधु प्रदेश नृशंस हूणों से पादाक्रांन है--जाति भीत और त्रस्त है, और उसका धर्म असहाय अवस्था मे पैरों से कुवला जा रहा है । क्षत्रिय राजा- धर्म का पालन कराने वाला राजा-पृथ्वो पर क्यों नहीं रह गया ? आपने इसे विचारा है ? क्यों ब्राह्मण टुकड़ों के लिए अन्य लोगों की उपजीविका छीन रहे है ? क्यों एक वर्ण के लोग दूसरे की अर्थकरी वृत्तियाँ ग्रहण करने लगे हैं ? लोभ ने तुम्हारे धर्म का व्यवसाय चला दिया, दक्षिणाओं की योग्यता से--स्वर्ग, पुत्र, धर्म, यश, विजय और मोक्ष तुम बेचने लगे। कामना से अंधी जनता के विलासी-समुदाय के ढोंग के लिए तुम्हारा धर्म आवरण हो गया है। जिस धर्म के आचरण के लिए पुष्कल स्वर्ण चाहिये, वह धर्म जन-साधारण की संपत्ति नहीं ! धर्मवृक्ष के चारों ओर स्वर्ण के काटेदार जाल फैलाये गये हैं और व्यवसाय की ज्वाला से वह दग्ध हो रहा है । जिन धनवानों के लिए तुमने धर्म को सुरक्षित रखा, उन्होंने समझा कि धर्म धन से खरीदा जा सकता है, इसीलिए धनोपार्जन मुख्य हुआ और धर्म गौण ! जो पारस्यदेश की मूल्यवान मदिरा रात को पी सकता है, वह धार्मिक बने रहने के लिए प्रभात मे एक गो-निष्क्रय भी कर सकता है। धर्म को बचाने के लिए तुम्हें राजशक्ति की आवश्यकता हुई। धर्म इतना निर्बल है कि वह पाशव बल के द्वारा सुरक्षित होगा ! ब्राह्मण-तुम कौन हो-मूर्ख उपदेश हट जाओ-तुम नास्तिक प्रच्छन्न बौद्ध ! तुमको क्या अधिकार है कि हमारे धर्म की व्याख्या करो ? ३२ स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४९७