पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१९

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मे) आयो रक्त-पिपासु धार्मिक ! नो, उपहार देकर अपने देवता को संतुष्ट करो ! (सिर झुका लेता है) ब्राह्मण-(तलवार फेंककर) धन्य हो महाश्रमण ! मैं नही जानता था कि तुम्हारे ऐसे धार्मिक भी इसी संघ में हैं। मैं बलि नहीं करूंगा। (जनता में जय- जयकार/सब धीरे-धीरे जाते हैं। दृश्यांतर) षष्ठ दृश्य [पथ में विजया और शोकमग्न मातृगुप्त] विजया--नही कविवर ! ऐसा नही । मातृगुप्त-कोन, विजया ? विजया-आश्चर्य और शोक का समय नहीं है। सुकवि-शिरोमणि ! गा चुके मिलन-संगीत, गा चुके कोमल कल्पनाओं के लचीले गान, रो चुके प्रेम के पचड़े ? एक बार वह उदोधन-गीत गा दो कि भारतीय अपनी नश्वरता पर विश्वास करके अमर भारत की सेवा के लिए सनद हो जायें। मातृगुप्त--(विकल भाव से) देवि ! तुम देवि" विजया-हाँ मातृगुप्त ! एक प्राण बचाने के लिए जिसने तुम्हारे हाथ में काश्मीर-मंडल दे दिया था, आज तुम उसी सम्राट् को खोजते हो ! एक नही, ऐसे सहन स्कंदगुप्त, ऐसे सहस्रों देव-तुल्य उदार युवक, इस जन्मभूमि पर उत्सर्ग हो जाय ! सुना दो वह संगीत-जिससे पहाड़ हिल जाय और समुद्र कांप कर रह जाय- अंगड़ाइयां लेकर मुचकुंद की मोह-निद्रा से भारतवासी जाग पड़ें। हम-तुम गली- गली, कोने-कोने पर्यटन करेंगे, पर पड़ेंगे, लोगों को जगावेगे : मातृगुप्त-बीर बाले ! तुम धन्य हो। आज से मैं यही करूँगा (देखकर) वह लो-चक्रपालित आ रहा है । (चक्रपालित का प्रवेश) चक्रपालित-(अन्यमनस्क भाव से) लक्ष्मी की लीला, कमल के पत्तों पर जलबिंदु, आकाश के मेघ-समारोह-अरे इनसे भी क्षुद्र नीहार-कणिकाओं की प्रभात- लीला, मनुष्य की अहष्ट-लिपि वैसी ही है जैसी अग्नि-रेखाओं से कृष्णमेघ में विजली की वर्णमाला-एक क्षण में प्रज्वलित, दूसरे क्षण में विलीन होने वाली ! भविष्यत् का अनुचर तुच्छ मनुष्य अतीत का स्वामी है ! मातृगुप्त-बंधु चक्रपालित ! चक्रपालित-कोन, मातृगुप्त ? भीमवर्मा--(विक्षिप्त सा सहसा प्रवेश करके) कहाँ है मेरा भाई, मेरे स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४९९