पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२

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नये-नये हैं साथ राह भी है नयी। नव विस्मृति के साथ व्यथा नव हो गयी। सुख समुद्र के बीच प्रेम का द्वीप था। चंद्रदेव का रजत-बिंब ही दीप पा॥ पवन-सुरभि आनंदपूर्ण सुख शीत था। नव वसंत का राग शांति-संगीत था। चिर वसंत-मय काम्य कुसुम के कुञ्ज थे। जिनमें विहरणशील रसिक अलिपुञ्ज थे। इतना था सौहार्द सभी हम एक थे। एक अकेले हमी रहे, न अनेक थे। करुणा का था राज्य, प्रेम ही धर्म था। युद्धानंद विनोद एक ही कर्म था। न था किसी मे मोह, कभी न विवाद था। मिलता अविरत स्वच्छ सुधा का स्वाद था। भीति शीत की भी, न मार्ग की यंत्रणा। यह कुचक्र-मय चाल न थी. न कुमंत्रणा ॥ सैनिक-(प्रवेश करते, स्वगत) रंग-ढंग तो आज निराला है, बाप रे बाप ! किसके लिए कुमत्रणा की चक्की तैयार हो रही है ? किसका सिर पीसकर यंत्रणा दी जायगी? कह दें, साहम ही नहीं होता कि कह दे। अच्छा ठहर जायें ।- चाणक्य -(निःश्वास लेकर आँख खोलता हुआ) तप्त हृदय का उष्ण नही निःश्वास था। शुद्ध प्रेम-मय भाव सत्य विश्वाम था। सैनिक-(जल्दी से) मंत्रिवर ! ग्रीक शिविर से एक ब्राह्मण आये हैं । चाणक्य-(झिड़क कर) चला जा यहां से । तुझे किसने यहां आने को अच्छा, सैनिक-(घबराकर कांपता हुआ) उसी ब्राह्मण ने । जाने लगता- चाणक्य-(रोक कर) उसने अपना नाम भी कुछ नताया है (कुछ सोचकर) जाओ बुला लाओ। (सनिक जाता है) इंदुशर्मा-(प्रवेश पर) नमस्कार ! -नमस्कार ! कहो जी क्या समाचार है ? इंदुशर्मा-अमात्य ! हमारा चंद्रगुप्त के शिविर में आना आज यवनों पर विदित हो गया, आज मैं किसी तरह वहां से चला आया पर अब न जाऊँगा। चाणक्य ३६ : प्रसाद वाङ्मय