पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२०

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हवय का बल, भुजाओं का तेज, वसुन्धरा का श्रृंगार, वीरता का वरणीय-बंधु, मालव-मुकुट आर्य बंधुवर्मा ? [प्रख्यातकीति और श्रमण का प्रवेश] प्रख्यातकीत्ति -सब पागल, 'लूटे गये-से अनाथ और आश्रयहीन-यही तो हैं आर्य-राष्ट्र के कुचले हुए अंकुर, भग्न-साम्राज्य-पोत के टूटे हुए पटरे और पतवार ऐसे वीर हृदय ! ऐसे उदार ! मातृगुप्त--तुम कौन हो? प्रख्यातकीति--संभवतः तुम्ही मातृगुप्त हो ! मातृगुप्त--(शंका से देखता हुआ) क्यों अहेरी कुत्तों के समान सूघते हुए यहाँ भी ! परंतु तुम- प्रख्यातकीत्ति--संदेह मत करो मातृगुप्त । शैशव-सहचर कुमार धातुसेन की आज्ञा से मैं तुम लोगो को खोज रहा हूं। यह लो प्रमाण-पत्र । मातृगुप्त-(पढ़कर) धन्य सिंहल के युवराज, श्रमण ! कह देना नुसार चलूंगा, और कनिष्क-चैत्य के समीप भेट होगी । प्रख्यातकीत्ति-कल्याण हो ! (जाता है) विजया-कहाँ चलें हम लोग ? मातृगुप्त-उसी जंगल में । (सब लोग जाते हैं) [वृश्यांतर] सप्तम दृश्य आज्ञा- [कमला की कुटी पर विचित्र अवस्था में स्कंदगुप्त का प्रवेश] स्कंदगुप्त-बौद्धों का निर्वाण, योगियो की समाधि और पागलो की संपूर्ण विस्मृति मुझे एक साथ चाहिये । चेतना कहती है कि तू राजा है, और उत्तर मे जैसे कोई कहता है कि तू खिलौना है-उसी खिलवाड़ी वटपत्रशायी बालक के हाथों का खि नौना है । तेरा मुकुट श्रमजीवी की टोकरी से भी तुच्छ है ? (चितामग्न होता है) करुणासहचर ! क्या जिस पर कृपा होती है, उसी को दु ख का अमोध,दान देते हो ! नाथ ! मुझे दुखों से भय नही, संसार के संकोचपूर्ण संकेतों की लज्जा नहीं। वैभव की जितनी कड़ियां टूटती हैं, उतना ही मनुष्य बंधनों से छूटता है, और तुम्हारी ओर अग्रसर होता है ! परंतु यह ठीकरा इसी सिर पर फूटने को था! आर्य-साम्राज्य का नाश इन्ही आँखों को देखना था ! हृदय काप उठता है, देशाभि- मान गरजने लगता है। मेरा स्वत्व न हो - मुझे अधिकार की आवश्यकता नही, यह नीति और सदाचारों का महान् आश्रय-वृक्ष--गुस-साम्राज्य-हरा-भरा रहे, और ५००: प्रसाद वाङ्मय