पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२२

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को बारीक धार पर पैर फैलाफर सोना जानती थीं। धधकती हुई ज्वाला में हसती हुई कूद पड़ती थी। तुम (देखती हुई) लुटेरे भी नहीं, उहूँ कायर भी नहीं, अकर्मण्य बातों में भुलाने वाले-तुम कौन हो ? देखा था एक दिन ! वही तो है जिसने अपनी प्रचंड हुंकार से दस्युओं को कंपा दिया था, ठोकर मारकर सोई हुई अकर्मण्य जनता को जगा दिया था, जिसके नाम से रोयें खड़े हो जाते थे, भुजायें फड़कने लगती थी। वही स्कंद--रमणियों का आश्रय और आर्यावर्त की छत्र-छाया! नहीं, भ्रम हुआ ! तुम निष्प्रभ, निस्तेज उसी के मलिन चित्र-से-तुम कौन हो? (प्रस्थान) स्कंदगुप्त-(बैठकर) आह ! मैं वही स्कंद हूँ-अकेला, निस्सहाय ! [कमला कुटी खोलकर बाहर निकलती है] कमला-कौन कहता है-तुम अकेले हो? समग्र संसार तुम्हारे साथ है। सहानुभूति को जाग्रत करो। यदि भविष्यत् से डरते हो कि तुम्हारा पतन ही समीप है, तो तुम उस अनिवार्य स्रोत से लड़ जाओ। तुम्हारे प्रचंड और विश्वासपूर्ण पादाघात से विध्य के समान कोई शैल उठ खड़ा होगा जो उस विघ्न-स्रोत को लोटा देगा ! राम और कृष्ण के समान क्या तुम भी अवतार नही हो सकते ? समझ लो, जो अपने कर्मों को ईश्वर का कर्म समझकर करता है वही ईश्वर का अवतार है। उठो स्कंद ! आसुरी वृत्तियों का नाश करो, सोने वालों को जगाओ और रोने वालो को हमाओ। आर्यावर्त तुम्हारे साथ होगा और उस आर्य-पताका के नीचे समग्र विश्व होगा-बीर ! स्कंदगुप्त--कौन तुम ? भटार्क की जननी ! [नेपथ्य से कंदन-'ब ओ-बचाओ' का शब्द] स्कंदगुप्त-कौन ? देवसेना का-सा शब्द ! मेरा खड्ग कहाँ है--(जाता है) [देवसेना का पीछा करते हुए हूण का प्रवेश] देवसेना-भीम ! भाई ! मुझे इस अत्याचारी से बचाओ, कहां गये ? हूण-कौन तुझे बचाता है ? (पकड़ना चाहता है । देवसेना छुरी निकाल कर आत्महत्या किया चाहती है | पर्णदत्त सहसा एक ओर से आकर एक हाथ से हूण की गर्दन दूसरे हाथ से देवसेना की छुरी पकड़ता है) -क्षमा हो ! पर्णदत्त-अत्याचारी ! जा तुझे छोड़ देता हूँ। आ बेटी, हम लोग चलें, महादेवी की समाधि पर। कमला--कहाँ, वही-कनिष्क के स्तूप के पास ! देवसेना-हां, कौन कमला देवी ? कमला-वही अभागिनी । देवसेना--अच्छा जाती हूँ, फिर मिलूंगी। ५०२: प्रसाद वाङ्मय