पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२४

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और तिस पर मैं हूँ ज्योतिषी। जहाँ देखो वही यह प्रश्न होता है, मुझे उन बातों के सुनने में भी संकोच होता है―मुझसे रूठे हुये हैं? किसी दूसरे पर उनका स्नेह है? वह सुन्दरी कब मिलेगी? मिलेगी या नहीं?―इस देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों ने यही प्रश्न गुरुजी से पाठ में पढ़ा है। अभिसार के लिए मुहूत्तं पूछे जाते है!

विजया―क्या मुद्गल! मुझे पहचान लेने का भी तुम्हें अवकाश नही है?

मुद्गल अवकाश हो या नहीं, मुझे आवश्यकता नही।

विजया―क्या आवश्यकता न होने से मनुष्य―मनुष्य से बात न करे ? सच है, आवश्यकता ही संसार के व्यवहारो की दलाल है। परंतु मनुष्यता भी कोई वस्तु है मुद्गल!

मुद्गल―उसका नाम न लो। जिस हृदय मे अखंड वेग है, तीव्र तृष्णा से जो पूर्ण है, और जो क्रूरताओं का भांडार है, जो अपने सुख―अपनी तृप्ति के लिए संसार में सब कुछ करने को प्रस्तुत है, उसका मनुष्यता से क्या संबंध?

विजया―न सही, परंतु इतना तो बता सकोगे, सम्राट् स्कंदगुप्त से कहाँ भेट होगी? क्योंकि यह पता चला है कि वे जीवित है।

मुद्गल―क्या तुम महाराज से भेट करोगी, किस मुँह से? अवंती मे एक दिन यह बात सब जानते थे कि विजया महादेवी होगी!

विजया―उसी एक दिन के बदले मुद्गल आज मैं फिर कुछ कहना चाहती हूँ। वही एक दिन का अतीत आज तक का भविष्य छिपाये था।

मुद्गल―तुम्हारा साहस तो कम नही है!

विजया―मुद्गल! बता दोगे?

मुद्गल―तुम विश्वास के योग्य नही। अच्छा अब और तुम क्या कर लोगी! देवसेना के साथ जहाँ पर्णदत्त रहते है, आज कमला देवी के कुटीर से सम्राट् वही अपनी जननी की समाधि पर जाने वाले है―उसी कनिष्क-स्तूप के पास! अच्छा, जाता हूँ। देखो, विजया! मैंने बता तो दिया―पर सावधान! (जाता है)

विजया―उसने ठीक कहा। मुझे स्वयं अपने पर विश्वास नही। स्वार्थ में ठोकर लगते ही मैं परमार्थ की ओर दौड़ पड़ी, परंतु क्या यह सच्चा परिवर्तन है? क्या मैं अपने को भूलकर देश-सेवा कर सकूँगी? क्या देवसेना ओह! फिर मेरे सामने वही समस्या। आज तो स्कंदगुप्त सम्राट नही है, प्रतिहिंसे―सो जा! क्या कहा? नही, देवसेना ने एक बार मूल्य देकर खरीदा था―विजया भी एक बार वही करेगी। देश सेवा तो होगी ही, यदि मैं अपनी भी कामना पूरी कर सकती! मेरा रत्न-गृह अभी बचा है, उसे सेना-संकलन करने के लिये सम्राट् को दूंगी, और ―एक बार बनूँगी महादेवी! क्या नही होगा! अवश्य होगा। अदृश्य ने इसीलिए उस


५०४: प्रमाद वाङ्मय