पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रक्षित रत्न-गृह को बचाया है। उससे एक साम्राज्य ले सकती हूं ! तो आज वही करूंगी, और, इसमें दोनों होगा-स्वार्थ और परमार्थ (प्रस्थान) [भटार्क का प्रवेश भटार्क--अपने कुकर्मों का फल चखने में कड़वा, परंतु परिणाम में मधुर होता है। ऐसा वीर, ऐसा उपयुक्त और ऐसा परोपकारी सम्राट् ! परंतु गया-मेरी ही भूल से सब गया। आज भी वे शब्द सामने आ जाते है, जो उस बूढ़े अमात्य ने कहे थे-'भटार्क, सावधान ! जिस काल-भुजंगी राष्ट्रनीति को लेकर तुम खेल रहे हो, प्राण देकर भी उसकी रक्षा करना ।' हाय । न हम उसे वश में कर सके और न तो उससे अलग हो सके। मेरी उच्च आकांक्षा, वीरता का दंभ, पाखंड की सीमा तक पहुंच गया। अनंतदेवी--एक क्षुद्र नारी--उसके कुचक्र मे-आशा के प्रलोभन में, मैंने सब बिगाड़ दिया। सुना है कि यही कही स्कंदगुप्त भी है, चलूं उस महत् का दर्शन तो कर लूं। [प्रस्थान/दृश्यांतर] द्वितीय दृश्य [कनिष्क-स्तूप के पास महादेवी की समाधि/अकेले पर्णदत्त टहलते हुए] पर्णदत्त--सूखी रोटियां बचाकर रखनी पड़ती है। जिन्हे कुत्तों को देते हुए संकोच होता था, उन्हीं कुत्सित अन्नों का संचय ! अक्षय-निधि के समान उन पर पहरा देता हूँ ! मैं रोऊँगा नही, परंतु यह रक्षा क्या केवल जीवन का बोझ वहन करने के लिए है ! नहीं, पर्ण ! रोना मत । एक बूंद भी आँसू आँखो में न दिखाई पड़े। तुम जीते रहो--तुम्हारा उद्देश्य सफल होगा। भगवान् यदि होगे, तो कहेंगे कि मेरी सृष्टि में एक सच्चा हृदय था। गंतोष कर उछलते हुए हृदय--संतोष कर ! तू रोटियों के लिए नहीं जीता है, तू उसकी भूल दिलाता है जिसने तुझे उत्पन्न किया है। परंतु जिस काम को कभी नहीं किया-उसे करते नही बनता- स्वांग भरते नही बनता, देश के बहुत-से दुर्दशा-गस्त वीर-हृदयों की सेवा के लिए करना पड़ेगा। मैं क्षत्रिय हूँ, मेरा यह पाप ही आपद्धर्म होगा-साक्षी रहना भगवन् ! [एक नागरिक का प्रवेश]] पर्णदत्त-- 1--बाबा ! कुछ दे दो। नागरिक--और तुम्हारी वह कहाँ गई-वह""(संकेत करता है) पर्णदत्त--मेरी बेटी स्नान करने गई है । बाबा | कुछ दे दो । नागरिक--मुझे उसका गान बड़ा प्यारा लगता है, अगर वह गाती--तो तुम्हें कुछ अवश्य मिल जाता । अच्छा, फिर आऊँगा। (जाता है) स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ५०५