पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२९

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स्कंदगुप्त―नहीं विजया! उस खेल को खेलने की इच्छा नहीं, यदि दूसरी बात हो तो कहो। उन बातों को रहने दो।

विजया―नहीं, मुझे कहने दो (सिसकती हुई) मैं अब भी....

स्कंदगुप्त―चुप रहो विजया! यह मेरी आराधना की―तपस्या की भूमि है, इसे प्रवञ्चना से कलुषित न करो। तुमसे यदि स्वर्ग भी मिले तो मैं उससे दूर रहना चाहता हूं।

विजया―मेरे पास अभी दो रत्न-गृह छिपे हैं, जिनसे सेना एकत्र करके तुम सहज ही उन हूणों को परास्त कर सकते हो!

स्कंदगुप्त―परन्तु साम्राज्य के लिए मैं अपने को बेंच नहीं सकता। विजया चली जाओ, इस निर्लज्ज प्रलोभन की आवश्यकता नहीं। यह प्रसंग यही तक!

विजया―मैंने देशवासियों को सन्नद्ध करने का संकल्प किया है, और भटार्क का प्रसंग छोड़ दिया है। तुम्हारी सेवा के उपयुक्त बनाने का उद्योग कर रही हूं। मैं मालव और सौराष्ट्र को तुम्हारे लिए स्वतंत्र करा दूंगी;अर्थलोभी हूण-दस्युओं से उसे हटा लेना मेरा काम है। केवल तुम स्वीकार कर लो।

स्कंदगुप्त―विजया, मुझे इतना लोभी समझ लिया है? मैं सम्राट् बन कर सिंहासन पर बैठने के लिए नही हूँ। शस्त्र-बल से शरीर देकर भी यदि हो सका तो जन्म-भूमि का उद्धार कर लूंगा। सुख के लोभ से मनुष्य के भय से मैं उत्कोच देकर कीत साम्राज्य नही चाहता।

विजया―क्या जीवन के प्रत्यक्ष सुखों से तुम्हे वितृष्या हो गई? आओ हमारे साथ बचे हुए जीवन का आनंद लो।

स्कंदगुप्त―और असहाय दीनों को राक्षसों के हाथ उनके भाग्य पर छोड़ दूं?

विजया―कोई दुःख भोगने के लिए है, कोई सुख। फिर सब का बोझ अपने सिर पर लाद कर क्यों व्यस्त होते हो?

स्कंदगुप्त―परंतु इस संमार को कोई उद्देश्य है। इसी पृथ्वी को स्वर्ग होना है, इसी पर देवताओं का निवास होगा, विश्व-नियंता का ऐसा ही उद्देश्य मुझे विदित होता है। फिर उसकी इच्छा क्यों न पूर्ण करूँ,विजया! मैं कुछ नही हूँ, उसका अस्त्र हूँ-परमात्मा का अमोघ अस्त्र हूँ। मुझे उसके संकेत पर केवल अत्याचारियों के प्रति प्रेरित होना है। किसी से मेरी शत्रुता नहीं, क्योंकि मेरी निज की कोई इच्छा नही। देशव्यापी हलचल के भीतर कोई शक्ति कार्य कर रही है, पवित्र प्राकृतिक नियम अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं सन्नद्ध हैं। मैं उसी ब्रह्मचक्र का एक....

विजया―रहने दो यह थोथा ज्ञान-प्रियतम! यह भरा हुआ यौवन बोर प्रेमी हृदय विलास के उपकरणों के साथ प्रस्तुत है। उन्मुक्त आकाश के नील-नीरद

स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य:५०९