पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३

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(पुरजा देकर) पह लीजिये यह ग्रीक शिविर का पूरा विवरण इसी में लिख दिया है, इसे आप स्वस्थ होकर पढ़ लीजिये। चाणक्य-मित्र ! हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं। पर क्या एक बात जानने में तुम हमारी कुछ सहायता कर सकोगे ? क्या यह बता सकते हो कि यवन शिविर में से कुछ स्त्रियाँ जो बाहर निकलकर घूमती थीं, कौन थी ? इंदुशर्मा ---(कुछ सोचकर) वह तो यवन मम्राट् सिल्यूकस की कन्या थी जिसे मैं पढ़ाया करता था। चाणक्य - ठीक है। मुझे भी यही संदेह था। अच्छा, अव विश्राम करें (इंदुशर्मा जाता है। चाणक्य फिर टहलने लगता है। कुछ सोचकर) हूँ, तभी चन्द्रगुप्त की यह अवथा है। अच्छा, पर क्या इतना परिश्रम व्यर्थ होगा। तलवार से नहीं, बुद्धि से नहीं, लक्ष्मी की झलक से नहीं, केवल एक क्षुद्र कटाक्ष से कौटिल्य का कूट-चक्र टूट जायगा। कभी नहीं, कभी नहीं। कोई कवि होता तो अवश्य कहता कृष्ण केसर से भरे नव नील सरसीरुह अहो । देखकर किसका मधुप-मन धैर्य धरता है, कहो।। पड़ गयी माला गले जिसके सरस नलिनाक्ष की। कंटकों की है लड़ी तैयार कुटिल कटाक्ष की ॥ चुभ गये काँटे जिसे वह एक पग चलता नही। दलित अपने हृदय को निज हाथ से मलता वहीं । पर मुझे तो ऐसी कपोल कल्पनायें अच्छी नहीं लगतीं। चंद्र त ! क्या ठीक कुमारी के भोगे सुख ने तुझे भुला दिया कि तूने किस कठिनाई से राज्य पाया है । हूँ, मैं समझ गया। यवनों की एक चाल यह भी है। मछली फंसाने के लिये वंशी फेंक दी गयी है, चारा भी मुंह में लग चुका है। पर अभी वारा-न्यारा नहीं हुआ। (हंसकर) अरे चाणक्य ! तिमिगल और वंसी सहित अहेरी खिंचा चला आये तब तो नाम, नहीं तो ये भी क्या जानेंगे। (घूमकर नेपथ्य की ओर देखकर) उधर देखो, चंद्रगुप्त चला आ रहा है, मुखमंडल सन्ध्या के कमल-सा हो गया है, अहा ! इसका मलिन मुख हमसे नही देखा जाता। संभवतः यह प्राभातिक वायु सेवन करके शिविर की ओर लौटा जा रहा है। मैं भी अपना आह्निक-कृत्य समान कर चुका हूं। चलू, अभी बहुत-सा कार्य करना है। प्रभात में जो थोड़ी शांति मिली थी, इन झंझट के कामों से वह फिर जाती रहेगी। (जाता है) (पटाक्षेप) कल्याणी परिणय : ३७