पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३०

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मंडल में दो विजलियों के समान क्रीड़ा' करते करते हम लोग तिरोहित ही जाय । और उस क्रीड़ा में तीब्र आलोक हो, जो हम लोगों के विलीन हो जाने पर भी जगत की आँखों को थोड़े काल के लिए बंद कर रक्खे । स्वर्ग की कल्पित बप्सरायें और इस लोक के अनंत पुण्य के भागी जीव भी-जिस सुख को देखकर आश्चर्य- चकित हों, वही मादक सुख, घोर आनंद, विराट् विनोद हम लोगों का आलिंगन करके धन्य हो जाय |-- अगुरु-धूम की श्याम लहरियां उलझी हों इन अलकों से, व्याकुलता लाली के डोरे इधर फंसे हों पलकों से- व्याकुल विजली-लो, तुम मचलो आर्द्र-हृदय-धनमाला से, आंसू वरुनी से उलझे हों, अधर प्रेम के प्याला से। इस उदास मन की अभिलाषा अंटको रहे प्रलोभन से, व्याकुलता सौ-सौ वल खा कर उलझ रही हो जीवन से। छवि-प्रकाश-किरणें उलझी हों जीवन के भविष्य तम से, ये लायेंगो रंग सुलालित होने दो कंपन सम से। इस आकुल जीवन की धड़ियाँ इन निष्ठुर आघातों से, बजा करे अगणित यंत्रों से सुख-दुख के अनुपातों से। उखड़ी साँसें उलझ रही हों धड़कन से कुछ परिमित हो, अनुनय उलझ रहा हो तीखे तिरस्कार से लांछित हो। यह दुर्बल दीनता रहै उलझी फिर चाहो ठुकराओ, निर्दयता के इन चरणों से, जिसमें तुम भी सुख पाओ। [स्कंद के पैरों को पकड़ती है] स्कंदगुप्त--(पैर छुड़ाकर) विजया | पिशाची । हट जा, नही जानती, मैंने आजीवन कौमार्य-त्रत की प्रतिज्ञा की है। विजया-तो क्या मैं फिर हारी ? (भटार्क का प्रवेश/विजया स्तम्ध होती है) भटार्क-निर्लज्ज हार कर भी नही हारता, मर कर भी नहीं मरता। विजया--कौन भटार्क) भटार्क- हाँ, तेरा पति भटार्क । दुश्चरित्रे । सुना था कि तुझे देश-सेवा करके पति होने का अवसर मिला है, परंतु हिंस्र पशु कभी एकादशी का व्रत करेगा- कभी शांति-पाठ पढ़ेगी? वजया-(सिर नीचा करके) अपराध हुआ। भटार्क-फिर भी किसके साथ ? जिस पर अत्याचार करके में भी मज्जित जिससे समा-याचना करने में आ रहा था। नीच स्त्री! १. सेलमा ज्यों दो बिजलियों मे मधुरिमा जाल । (कामायनी, नासना सर्ग)। ५१०: प्रसाद वाङ्मय