पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३१

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विजया-धोर अपमान, तो बस ""(छुरी निकाल कर आत्महत्या करती है) स्कंदगुप्त-भटार्क ! इसके शव का संस्कार करो। भटार्क -देव ! मेरी भी लीला समाप्त है-(छुरी निकाल कर अपने को मारना चाहता है स्कंदगुप्त हाथ पकड़ लेता है) स्कंदगुप्त-तुम बीर हो, इस समय देश को वीरों की आवश्यकता है। तुम्हारा यह प्रायश्चित्त नहीं। रणभूमि में प्राण देकर जननी जन्म-भूमि का उपकार करो। भटार्क ! यदि कोई साथी न मिला तो साम्राज्य के लिए नहीं-जन्मभूमि के उद्धार के लिए-मैं अकेला युद्ध करूंगा और तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी, पुरगुप्त को सिंहासन देकर मैं वानप्रस्थ-आश्रम ग्रहण करूंगा। आत्महत्या के लिए जो अस्त्र तुमने ग्रहण किया है, उसे शत्रु के लिए सुरक्षित रक्खो। भटार्क-(स्कंद के सामने घुटने टेक कर) 'श्री स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की जय हो !' जो आज्ञा होगी वही करूँगा ! स्कन्दगुप्त-(प्रस्थान करते) पहले इस गव का प्रबंध होना चाहिए। भटाई (स्वगत) इम घृणित शव का अग्नि-संस्कार करना ठीक नहीं लाओ, इसे यहीं गाड़ दूँ! (भूमि खोदते समय एक भयानक शब्द के साथ रत्न-गृह का प्रकट होना और भटार्क का प्रसन्न होकर पुकारना/स्कंदगुप्त का आकर रत्न-गृह देखना) स्कन्दगुप्त-भटार्क ! यह तुम्हारा है। भटार्क-हाँ सम्राट् । यह हमारा है, इसीलिए देश का है। आज से मैं सेना- संकलन में लगूंगा। स्कन्दगुप्त--वह पर बड़ी भीड़ हो रही है--स्तूप के पास । भटार्क--नागरिकों का उत्सव है (रत्न-गृह बंद करके) चलिये, देखू । [दृश्यांवर] तृतीय दृश्य [स्तूप का एक पाश्र्व नागरिकों का आवागमन/उन्हीं में वेश बदले हुए मातृगुप्त, भीमवर्मा, चक्रपालित, शर्वनाग, कमला, रामा इत्यादि का और सरी ओर से वृद्ध पर्णदत्त का हाथ पकड़े हुए देवसेना का प्रवेश] एक नागरिक-अरे वह छोकरी आ गई इससे कुछ सुना जाय । अन्य नागरिक-हा रे छोकरी ! कुछ गा तो। पर्णदत्त-भीख दो बाबा ! देश के बच्चे भूखे हैं, असहाय है-कुछ दे जो स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ५११