पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३४

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पश्चम दृश्य [रणक्षेत्र में सम्राट् स्कन्दगुप्त, भटार्क, चक्रपालित, पर्णवत्त, मातृगुप्त, भीमवर्मा इत्यादि सेना के साथ परिक्रमण करते हैं] मातृगुप्त-वीरो। हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार । उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार। जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक । व्योम-तम-पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक । विमल वाणी ने वीणा ली कमल-कोमल कर में सप्रीत । सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत । बचा कर बीज-रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत । अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत । सुना है दधीचि का वह त्याग हमारा जातीयता विकास । पुरंदर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरा इतिहास । सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह । दे रही अभी दिखाई भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह । धर्म का ले लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बंद । हमी ने दिया शांति-संदेश सुखी होते देकर आनंद । विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही, धरा पर धूम । भिक्षु होकर रहते सम्राट् दया दिखलाते घर-घर घूम। यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि । मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि । •किमी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं। हमारी जन्म-भूमि थी यहीं, कहीं से हम आये थे नहीं। जातियों का उत्थान-पतन, आँधियां, झड़ी, प्रचंड समीर । खड़े देखा, मेला हंसते, प्रलय में पले हुए हम वीर। चरित ये पूत, भुजा में शक्ति, नभ्रता रही सदा संपन्न । हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपत्र। हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सवा हमारे देव । वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव । वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान । वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान । ५१४:प्रसाद वाङ्मय