पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

षष्ठ दृश्य , [उद्यान का एक भाग] देवसेना-हृदय की कोमल कल्पना ! सो जा ! जीवन में जिसकी संभावना नही, जिसे द्वार पर आये हुए लौटा दिया था, उसके लिए पुकार मचाना क्या तेरे लिए कोई अच्छी बात ? आज जीवन के भावी सुख, आशा और आकांक्षा--सब से मैं बिदा लेती हूँ। आह ! वेदना मिली बिदाई ! मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई। छलछल थे संध्या के श्रमकण, आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण । मेरी यात्रा पर लेती थी-नीरवता अनंत अंगड़ाई। श्रमित स्वप्न की मधुमाया में, गहन-विपिन की तरु-छाया में पथिक उनींदी श्रुति में किसने-यह विहाग की तान उठाई। लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी, रही बचाये फिरती कबकी। मेरी आशा आह ! बावली तूने खो दी सकल कमाई । चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर, प्रलय चल रहा अपने पथ पर। मैंने निज दुर्बल पद-बल पर, उससे हारी-होड़ लगाई। लौटा लो यह अपनी थाती, मेरी करुणा हा-हा खाती ! विश्व ! न संभलेगी यह मुझसे इससे मन की लाज गंवाई। स्कन्दगुप्त-(प्रवेश करते) देवसेना ! देवसेना -जय हो देव ! श्री चरणों मे मेरी भी कुछ प्रार्थना है। स्कन्दगुप्त-मालवेश-कुमारी ! क्या आगा है ? आज बंधुवर्मा इस आनन्द को देखने के लिए नही है। जननी जन्म-भूमि का उद्धार करने की जिस वीर की दृढ़ प्रतिज्ञा थी-जिमका ऋणशोध कभी नही किया जा सकता-उसी वीर बंधुवर्मा की भगिनी मालवेश कुमारी देवसेना की क्या आज्ञा है ? देवसेना-मैं मृत भाई के स्थान पर यथाशक्ति सेवा करती रही, अब मुझे छुट्टी मिले। स्कन्दगुप्त-देवि । यह न कहो । जीवन के शेष दिन, कर्म के अवसाद में बचे हुए हम दुखी लोग एक-दूसरे का मुंह देखकर काट लगे। हमने अंतर की प्रेरणा से शस्त्र द्वारा जो निष्ठुरता की थी, वह इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिए। परंतु इस नंदन की वसंतश्री, इस अमरावती की शची, स्वर्ग की लक्ष्मी तुम चली जाओ-ऐमा ५१६: प्रसाद वाङ्मय