पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५३७

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मैं किस मुंह से कहूं ? (कुछ ठहर कर सोचते हुए) और किस वज्र कठोर हृदय से तुम्हें रोकू ? देवसेना-देवसेना ! तुम जाओ-हतभाग्य स्कन्दगुप्त ! अकेला स्कन्द-ओह! देवसेना [-कष्ट हृदय की कसौटी है--तपस्या अग्नि है-सम्राट् ! यदि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखो का अंत है । जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए। मेरे इस जीवन के देवता ! और उस जीवन के प्राप्य ! क्षमा !! [घुटने टेकती हैं, स्कन्द उसके सिरपर हाथ रखता है] यव निका स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ५१७