पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५०

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से) बोलो ब्राह्मण, मेरे राज्य में रहकर, मेरे अन्न से पलकर मेरे ही विरुख कुचक्रों का सृजन ! चाणक्य-राजकुमार, ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है और न किसी के अन्न से पलता है, स्वाराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। यह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखने पर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याण के लिए अपने ज्ञान का दान देता है। आंभीक-वह काल्पनिक महत्त्व-मायाजाल है, तुम्हारे प्रत्यक्ष नीच-कर्म उस पर परदा नहीं डाल सकते । चाणक्य-सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय ! इसी से दस्यु और म्लेच्छ साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य जाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्के की राह देख रही है। आंभीक-और तुम धक्का देने का कुचक्र विद्यार्थियों को सिखा रहे हो ? सिंहरण-विद्यार्थी और कुचक्र ! असम्भव-यह तो वे ही कर सकते हैं जिनके हाथ में अधिकार हो-जिनका स्वार्थ समुद्र से भी विशाल और सुमेरु से भी कठोर हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयं वाह्लीक तक"" आंभीक-बस-बस, दुर्धर्ष युवक ! बता, तेरा अभिप्राय क्या है ? सिंहरण-कुछ नही। आंभीक-नही, बताना होगा। मेरी आज्ञा है। सिंहरण-गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती हैं, अन्य आज्ञाएँ अवज्ञा के कान से सुनी जाती हैं राजकुमार ! अलका-भाई ! इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छंद हृदय में कितना बलवान वेग है ! यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है । जाने दो। आंभीक-चप रहो अलका, यह ऐसी बात नहीं है जो यों ही उड़ा दी जाय । इसमें कुछ रहस्य है । (चाणक्य चुपचाप मुस्कराता है) सिंहरण-हां-हाँ, रहस्य है ! यवन आक्रमणकारियों के पुष्कल-स्वर्ण से पुलकित होकर, आर्यावर्त की सुख-रजनी की शान्ति-निद्रा में उत्तरापथ की अर्गला-धीरे से खोल देने का रहस्य है ! क्यों राजकुमार संभवतः तक्षशिलाधीश वाहीक तक इसी रहस्य का उद्घाटन करने गये थे? आंभीक-(पैर पटक कर) ओह, असह्य ! युवक, तुम बन्दी हो । (तलवार खींचता है) सिंहरण-कदापि नही-मालव कदापि बन्दी नहीं हो सकता। चन्द्रगुप्त- -(सहसा प्रवेश करके) ठीक है, प्रत्येक निरपराध आर्य स्वतन्त्र ५३०: प्रसाद वाङमय