पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५२

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भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसों में आर्यावर्त के सब स्वतन्त्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होने ? आज जिस व्यंग को लेकर इतनी घटना हो गई है, वह बात भावी गान्धार-नरेश आंभीक के हृदय में शल्य के समान चुभ गई है। पञ्चनद-नरेश पर्वतेश्वर से विरोध के कारण यह क्षुद्रहृदय आंभीक यवनों का स्वागत करेगा और आर्यावर्त का सर्वनाश होगा। चन्द्रगुप्त-गुरुदेव, विश्वास रखिये, यह सब कुछ नही होने पावेगा। यह चन्द्रगुप्त आपके चरणों की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है कि यवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे। चाणक्य-तुम्हारी प्रतिज्ञा अचल हो। परन्तु इसके लिए पहले तुम मगध जाकर साधन-सम्पन्न बनो। पहां समय बिताने का प्रयोजन नही। मैं भी पञ्चनद- नरेश से मिलता हुआ मगध आऊँगा और सिंहरण, तुम भी सावधान ! सिंहरण-आर्य, आपका आशीर्वाद ही मेरा रक्षक है । [चन्द्रगुप्त और चाणक्य का प्रस्थान] --एक अग्निमय गन्धक का स्रोत आर्यावर्त के लौह-अस्त्रागार में घुसकर विस्फोट करेगा। चञ्चला रण-लक्ष्मी इन्द्र-धनुष-सी विजय-माल हाथ मे लिए उस सुन्दर नील-लोहित प्रलय-जलद में विचरण करेगी और वीर-हृदय मयूर-से नाचेंगे ! तब आओ देवि ! स्वागत !! [अलका का प्रवेश]] अलका-मालव वीर, अभी तुमने नक्षशिला का परित्याय नहीं किया ? सिंहरण- क्यों देवि ! क्या मैं यहां रहने के उपयुक्त नहीं हूँ ? अलका-नहीं, मैं तुम्हारी सुख-शान्ति के लिए चिन्तित हूँ ? भाई ने तुम्हारा अपमान किया है पर वह अकारण न था ! जिसका जो मार्ग है उस पर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की थी ! देखती हूँ कि प्रायः मनुष्य दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, और अपना चलना वन्द कर देता है। सिंहरण-परन्तु भद्रे, जीवन-यात्रा में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षा करते हुए जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों को लाभ ही पहुंचाता है। यह कष्टदायक तो है, परन्तु निष्फल नही। अलका-किन्तु मनुष्य को अपने जीवन और सुख का भी ध्यान रखना चाहिये। सिंहरण '-मानव कब दानव से भी दुन्ति, पशु से भी बर्बर और पत्थर से भी कठोर-करुणा के लिए निरवकाश हृदय वाला हो जायगा, नही जाना जा सकता। अतीत के सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य के लिए भय क्यों और वर्तमान को तो अपने अनुकूल बना ही लूंगा, फिर चिन्ता किसकी ! ५३२: प्रसाद वाङ्मय