पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५३

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अलका -मालव, तुम्हारे देश के लिए तुम्हारा जीवन अमूल्य है, और वही यहाँ आपत्ति में है। सिंहरण- राजकुमारी, इस अनुकम्पा के लिए कृतज्ञ हुआ। परन्तु मेरा देश मालव ही नहीं, गान्धार भी है। यही क्या, समन आर्यावर्त है इसलिए मैं- अलका-(आश्चर्य से) क्या कहते हो ? सिंहरण -गान्धार आर्यावर्त से भिन्न नही है, इसलिए उसके पतन को मैं अपना अपमान समझता हूँ। अलका -(निश्वास लेकर) इगका मै अनुभव कर रही हूँ। परन्तु जिस देश मे ऐसे वीर युवक हों, उसका पतन असम्भव है। मालव वीर, तुम्हारे मनोबल में स्वतन्त्रता है और तुम्हारी दृढ भुजाओ मे आर्यावर्त के रक्षण की शक्ति है, तुम्हें सुरक्षित रहना चाहिये। मै भी आर्यावर्त की बालिका हूँ तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम गीघ्र गान्धार छोड दो। मै आभीक को शक्ति भर पतन से रोकूगी, परन्तु उसके न मानने पर तुम्हारी आवश्यकता होगी-जाओ वीर ! सिंहरण अच्छा राजकुमारी तुम्हारे स्नेहानुरोध से मैं जाने के लिए बाध्य हो रहा ह । शोन ही चला जाऊँगा देवि ! किन्तु यदि किसी प्रकार सिन्धु की प्रखर धारा को यवन सेना न पार कर सकती. अलका-मैं चेष्टा करूंगी वीर, तुम्हारा नाम सिहरण -मालवगण के राष्ट्रपति का पुत्र सिंहरण । अलका- अच्छा, फिर कभी-(परस्पर देखते हुए प्रस्थान) दृश्या न्त र ? द्वितीय दृश्य [मगध-सम्राट् नन्द के विलास-कानन में विलासी युवकों और युवतियों का विहार] नन्द-(प्रवेश करते) आज वसन्त-उत्सव है क्या ? एक युवक-जय हो देव ! आपकी आज्ञा से कुसुमपुर के नागरिको ने आयोजन किया है। नन्द-परन्तु मदिरा का तो तुम्हारे समाज मे अभाव है, फिर आमोद कैसा? (एक युवती से)-देखो-देखो-तुम सुन्दरी हो परन्तु तुम्हारे यौवन का विभ्रम अभी संकोच की अर्गला से जकडा हुआ है तुम्हारी आँखो मे काम का सुकुमार संकेत नही, अनुराग की लाली नही ' फिर कैसा प्रमोद ! चन्द्रगुप्त : ५३३