पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मधुसरिता-सी यह हंसी तरल-अपनी पीते रहते हो क्यों ? वेला विभ्रम की बीत चली रजनीगन्धा की कली खिली- अब, सांध्य-मलय आकुलित-दुकूल-कलित हो यों छिपते हो क्यों ? [साधु-साधु की ध्वनि] नन्द- उस अभिनेत्री को यहाँ बुलाओ। [सुवासिनी नन्द के समीप आकर प्रणत होती है] नन्द-तुम्हारा अभिनय तो अभिनय नहीं हुआ ! नागरिक-अपितु वास्तविक घटना जैसी देखने में आवे, वैसी ही देव ! नन्द-तुम बड़े कुशल हो-ठीक कहा । सुवासिनी-तो मुझे दण्ड मिले । आज्ञा कीजिये देव ! नन्द-मेरे साथ एक पात्र । सुवासिनी-परन्तु देव, एक बड़ी भूल होगी । नन्द-वह क्या ? मासिनी-आर्य राक्षस का अभिनयपूर्ण गान नही हुआ। नन्द-राक्षस ! नागरिक-यही हैं देव ! [राक्षस सम्मुख आकर प्रणाम करता है] नन्द-बसन्तोत्सव की रानी की आज्ञा से तुम्हें गाना होगा। राक्षस T-~~ उसका मूल्य होगा एक पात्र कादम्ब ! [सुवासिनी पात्र भरकर देती है | सुवासिनी मान का मूक अभिनय करती है | राक्षस सुवासिनी के सम्मुख अभिनय सहित गाता है] निकल मत बाहर दुर्बल आह लगेगा तुझे हंसी का गीत शरद नीरद माला के बीच तड़प ले चपला-सी भयभीत पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार जलन कुछ-कुछ है मीठी पीर सम्हाले चल कितनी है दूर प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर अश्रुमय सुन्दर विरह निशीथ भरे तारे न ढुसकते आह ! न उफना दे आंसू हैं भरे इन्ही आँखों में उनकी चाह काकली-सी बनने की तुम्हें लगन लग जाय न हे भगवान पपीहा का पी सुनता कभी अरे कोकिल की देख दशा न, हृदय है पास, सांस की राह चले आना-जाना चुपचाप अरे छाया बन छू मत इसे भरा है तुझमें भीषण ताप चन्द्रगुप्त : ५३५