पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५८

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चतुर्थ दृश्य [कुसुमपुर में सरस्वती मन्दिर के उपवन का पथ] राक्षस -सुवासिनी ! हठ न करो। सुवासिनी -नही, उस ब्राह्मण को दण्ड दिये बिना सुवासिनी जी नही सकती अमात्य, तुमको करना होगा। मैं बौद्ध स्तूप की पूजा करके आ रही थी, उसने व्यंग किया और वह बड़ा कठोर था-राक्षस ! उसने कहा-'वेश्याओं के लिए भी एक धर्म की आवश्यकता थी, चलो अच्छा ही हुआ ऐसे धर्म के अनुकूल पतितो की भी कमी नही !' राक्षस -यह उसका अन्याय था। सुवासिनी-परन्तु अन्याय का प्रतिकार भी है। नही तो मैं समझंगी कि तुम भी वैसे ही एक कठोर ब्राह्मण हो। राक्षस मैं वैसा हूँ कि नही, यह पीछे मालूम होगा। परन्तु सुवासिनी, मैं स्वयं हृदय से बौद्ध मत का समर्थक हूँ, केवल उसकी दार्शनिक सीमा तक, इतना ही कि संसार दुःखमय है। सुवासिनी-इसके बाद? राक्षस-मैं इस क्षणिक जीवन की घड़ियों को सुखी बनाने का पक्षपाती हूं- और तुम जानती हो कि मैंने ब्याह नही किया -परन्तु भिक्षु भी न बन सका। सुवासिनी-तब आज से मेरे कारण तुमको राजचक्र मे बौद्ध मत का समर्थन करना होगा। राक्षस-मैं प्रस्तुत हूं। सुवासिनी -फिर तो, मैं तुम्हारी हूँ। मुझे विश्वास है कि दुराचारी सदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है, और बौद्ध मत इसका समर्थन करता है, सबको शरण देता है । हम दोनों उपासक होकर सुखी बनेंगे। राक्षस--इतना बड़ा सुख-स्वप्न का जाल-आँखों मे न फैलाओ ! सुवासिनी-नही प्रिय ! मैं तुम्हारी अनुचरी हूँ। मैं नन्द की विलास-लीला का क्षुद्र उपकरण बनकर नही रहना चाहती । (जाती है) राक्षस-एक परदा उठ रहा है, या गिर रहा है, समझ में नहीं आना (आँखें मींचकर) सुवासिनी ! कुसुमपुर का स्वर्गीय कुसुम-मैं हस्तगत कर लू? नही, राजकोप होगा ! परन्तु जीवन वृथा है। मेरी विद्या, मेरे परिष्कृत विचार सब व्यर्थ हैं। सुवासिनी एक लालसा है, एक प्यास है-वह अमृत है, उसे पाने के लिए सौ बार मरूंगा। (नेपथ्य से-'हटो-मार्ग छोड़ दो' की ध्वनि सुनकर) कोई राजकुल की सवारी है ? तो चलूं। (जाता है) ५३८:प्रसाद वाङ्मय