पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५५९

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1 [रक्षियों के साथ शिविका पर राजकुमारी कल्याणी का प्रवेश] कल्याणी-(शिविका से उतरती हुई लीला से) शिविका उद्यान के बाहर ले जाने के लिए कहो और रक्षी लोग भी वही ठहरें। (शिविका लेकर रक्षी जाते हैं-नेपथ्य की ओर देखकर) आज सरस्वती मन्दिर में कोई समाज है क्या ? जा तो नीला, देख आ। (नीला जाती है) लीला-राजकुमारी चलिये इस श्वेत शिला पर बैठिये। यहां अशोक की छाया बड़ी मनोहर है। अभी तीसरे पहर का सूर्य कोमल होने पर भी स्पृहणीय नही। कल्याणी -चल । (दोनों जाकर बैठती हैं/नीला आती है) नीला-राजकुमारी, आज तक्षशिला से लौटे हुए स्नातक लोग सरस्वती दर्शन के लिए आये है। कल्याणी -क्या सब लौट आये है ? नीला-यह तो न जान सकी। कल्याणी-अच्छा, तू भी बैठ। देख, कैसी सुन्दर माधवी लता फैल रही है । महाराज के उद्यान मे भी लताये ऐसी हरी-भरी नही, जैसे राज-आतंक से वे भी डरी हुई हो। सच नीला, मैं देखती हूं कि महाराज से कोई स्नेह नही करता, डरते भले ही हों। नीला-सखी, मुझ पर उनका कन्या-सा ही स्नेह है, परन्तु मुझे डर लगता है । कल्याणी-मुझे इसका बडा दुख है । दखती हूँ कि समस्त प्रजा उनसे त्रस्त और भयभीत रहती है, प्रचण्ड शासन करने के कारण उनका बड़ा दुर्नाम है। नीला-परन्तु इसका उपाय क्या ? देख लीला, वे दो कोन इधर आ रहे हैं । चल, हम लोग छिप जाये । [सब कुंज में चली जाती है | दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश] एक ब्रह्मचारी-धर्मपालित मगध को उन्माद हो गया है । वह जनसाधारण के अधिकार अत्याचारियों के हाथ में देकर विलासिता का स्वप्न देख रहा है। तुम तो गये नहीं, मैं अभी उत्तरापथ से आ रहा हूँ गणतन्त्रों मे सब प्रजा वन्यवीरुध के समान स्वच्छन्द फल-फूल रही है। इधर उन्मत्त मगध, साम्राज्य की कल्पना में निमग्न है। दूसरा-स्नातक, तुम ठीक कह रहे हो। महापद्म का जारज पुत्र नन्द केवल शस्त्र-बल और कूटनीति के द्वारा सदाचारों के सिर पर ताण्डव-नृत्य कर रहा है। यह सिद्धान्त-विहीन, नृशंस, कभी बौद्धों का पक्षपाती, कभी वैदिकों का अनुपायी बनकर दोनों में भेदनीति चलाकर बल-संचय करता रहता है। मूर्ख जनता धर्म की ओट में नचाई जा रही है। तुम देश-विदेश देखकर आये हो, आज मेरे घर पर . चन्द्रगुप्त : ५३९