पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६

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[चंद्रगुप्त जाता है। चाणक्य का प्रवेश चाणक्य सीटी बजाता है, गुप्तचर का प्रवेश] चर-क्या आज्ञा है ? चाणक्य-कठिन कार्य है । आज तुम्हारी कठिन परीक्षा है । चर-आप कहिये, मैं अवश्य करूंगा। चाणक्य- यह तो मुझे बढ़ विश्वास है कि चंद्रगुप्त का पराक्रम ठीक है पर उस पराक्रम की अग्नि में घी डालने का काम तुम्हारा है। जिस समय चन्द्रगुप्त विजयी हो रहा हो उस समय तुमको उसके पास पहुँचकर यवनकुमारी का ध्यान दिलाना होगा और शिविर भी बतलाना होगा। यदि तुम कृतकार्य हुए तो समझ लेना कि चाणक्य तुम्हे यथेष्ट पुरस्कार देगा। चर-जो आज्ञा ! (जाता है) (पटाक्षेप) तृतीय दृश्य जय जय जय सम प्यारी ॥ धारी॥ [सिन्धु तट पर चन्द्रगुप्त की सेना] (समवेतस्वर) जय जय जय आदि भूमि, जय जय जय भरत भूमि । जन्म भूमि, अपने निखिल-विश्व-गुरु समान, जिसका गौरव महान । प्रति कण मे निहित ज्ञान, प्राण देह धारी॥ सब है महाप्राण, भारत के शिरस्त्राण । असि शरधनु हिमगिरि सम धीर रहें, सिन्धु सम गंभीर रहें। जननी व्रतधारी॥ [चंद्रगुप्त का प्रवेश] सेनाः -जय ! महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त की जय ! चंद्रगुत-चीरगण ! आज जो परिश्रम आप लोगों ने किया वह अकथनीय है। आज ही मुझे मालूम हुआ कि मैं अकेला नहीं हूं। भारत के अगणित वीरपुत्र सच्चे हृदय से मेरा साथ दे रहे हैं। सिंहनाद -सब महाराज के चरण का प्रभाव है चंद्रगुप्त-वीरगण ! तुम्हारे ऐसे कर्मण्य वीरों के शौर्य, मेरे साहम और ईश्वर की कृपा के मिल जाने से आज सिल्यूकस की विजयिनी ग्रीकवाहिनी को हम लोगों से पराजित होना पड़ा है। ४०: प्रसाद वाङ्मय