पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६०

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तुम्हारा निमन्त्रण है, वहाँ सबको तुम्हारी यात्रा का विवरण सुनने का अवसर मिलेगा। पहला-चलो। (दोनों जाते हैं | कल्याणी बाहर आती है) कल्याणी-सुनकर हृदय की गति रुक्ने लगती है। इतना कथित राजपद ! जिसे साधारण नागरिक भी घृणा की दृष्टि से देखता है कितने मूल्य का है लीला ? [नेपथ्य से 'भागो-भागो! राजा का अहेरी चीता पिंजरे से निकल भागा है, भागो-भागो'-तीनों चीखती हुई कुंज में छिपने लगती हैं | चीता आता है | दूर से आकर एक तीर उसका सिर छेद कर निकल जाता है- चीता गिरता है | धनुष लिए हुए चन्द्रगुप्त का प्रवेश] चन्द्रगुप्त - कौन है यहाँ ? किधर से स्त्रियों का क्रन्दन सुनाई पड़ा था ? (देखकर) अरे, यहाँ तो तीन सुकुमारियाँ है। भद्रे - पशु ने कुछ नोट तो नही पहुँचाई ? लीला -साधु ! वीर | राजकुमारी की प्राण-रक्षा के लिए तुम्हे अतश्य पुरस्कार मिलेगा! चन्द्रगुप्त- कौन ? राजकुमारी कल्याणी देवी ? लीला-हाँ, यही न है ? भय से मुख विवर्ण हो गया है। चन्द्रगुप्त-राजकुमारी, मौर्य-सेनापति का पुत्र चन्द्रगुप्त प्रणाम करता है । कल्याणी-(स्वस्थ होकर सलज्ज) नमस्कार-चन्द्रगुप्त, कृतज्ञ हुई । तुम भी स्नातक होकर लौटे हो ? चन्द्रगुप्त-हाँ देवि, तक्षशिला मे पांच वर्ष रहने के कारण यहाँ के लोगो को पहचानने में विलम्ब होता है। जिन्हे किशोर छोड़कर गया था, अब वे तरुण दिखाई पड़ते है । अपने कई बाल सहचरो को भी मै न पहचान सका। कल्याणी-परन्तु मुझे आशा थी तुम मुझे न भूल जाओगे। चन्द्रगुप्त-देवि, यह अनुचर सेवा के उपयुक्त अवसर पर पहुँचा। चलिये शिपिका तक पहुंचा दूं । (सब जाते है) दृश्या न्त र पंचम दृश्य [नगर की सीमा में सार्थवाह धनदत्त अपने पैरों को गिनते हुए रखता बाई नासिका बन्द किए दाहिने से जोर-जोर से श्वास फेंकता हुआ एक, दो, तीन, चार, पाँच कहते आता है, सामने से बड़ी-बड़ी जटाओं वाला एक आजीवक लम्बा-सा बाँस लिये और चादर ओढ़े उसके सम्मुख आकर जोर ५४०: प्रसाद वाङ्मय