पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६१

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. से छींक देता है, धनवत्त घबराकर बैठ जाता है और उसे देखते नेपथ्य की ओर हाथ उठाकर रुकने का संकेत करता है | आजीवक हंसने लगता है] धनदत्त-(सक्रोध) तुम हँस रहे हो ! आजीवक-तो क्या रोऊँ ! धनदत्त-अरे नहीं-नही तुमने छीक नो दिया ही अब यात्रा के समय रोने भी लगोगे। आजीवक-फिर क्या होगा? धनदत्त-कही राह मे कुवे सूख जायें । घोडे बैल मर जाय। डाकू घेर ले। आंधी चलने लगे। पानी बरसने लगे, रात को प्रेतो का आक्रमण हो, गाड़ियां उलट जायं। आजीवक-फिर- धनदत्त-तुम्हारा सिर ! मै जा रहा हूँ इतनी दूर, शकुन देखकर घर से निकला था । तुम पूरे व्यतीपात की तरह मेरी यात्रा मे व्याघात बन रहे हो। आजीवक- यह बात ! तो तुम अपनी यात्रा करो। (जाने के लिये मुंह फिराता है, दूसरी ओर से दौड़ता हुआ चन्दन आता है | आजीवक को पकड़ कर घुमा देता है) चन्दन-अब चले कहाँ। यह देखो सामने इतने मनुष्यो का झुण्ढ ! सबको ग्यारह-ग्यारह पग दाहिने स्वर मे चलकर चैत्य-वृक्ष के नीचे रुक जाना था। सो पाँच ही चल सके । अब तुम भी यही ठहरो। आजीवक-अरे चल भी। ग्यारह पग चलने के लिये इतना बडा आयोजन ! [चन्दन आश्चर्य से धनदत्त को देखता है | धनदत्त क्रोध से आजीवक को झकझोर कर हिला देता है] चन्दन-ठहरिये मैं पूछ तो लं। (आजीवक से) अरे भाई तुम दार्शनिक हो ? आजीवक-हूँ। चन्दन-तुम्हारा क्या सिद्धान्त है ? पृथ्वी चल है या अचल-अग्नि मे जल है या नही । पानी गरम करने में जीव मरते है कि जल शुद्ध हो जाता है ? आजीवक-चुप रहो। धनदत्त -मैं पूछता हूँ कि जब शकुन देखकर, ब्राह्मण का आशीर्वाद लेकर घर से मैं निकला तब तुम ठीक उसी समय मेरे पथ मे बर्नावलाव की तरह क्यों आ गए मुझे जाना है तक्षशिला फिर सिन्धु देश फिर शिविजनपद मे- आजीवक--फिर ? धनदत्त-क्या सब तुम्ही को बता दें ? गापार के गूढ़ रहस्यों को तुम जैसे जटाधारी नारियल की योण्डी क्या समझेगी। चन्द्रगुप्त : ५४१