पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६२

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आजीवक-तो मैं पूछता कब हूँ ? चन्दन-पर जो अपशकुन हो गया। अब हम लोग न पीछे लौट सकते हैं न आगे बढ़ सकते हैं। आजीवक-यही तो-पुरुष कुछ नही कर सकता है। चन्दन -(आश्चर्य से) क्यों ? आजीवक--क्योकि उसमे न कर्तृत्त्व है न कर्म । धनदत्त-है है यह तुम क्या कहते हो। आजीवक-यही तो क्योंकि उसमे वीर्य नही । धनदत्त -यह तो हुई पुरुषो की बात । भला स्त्री ! चन्दन-अरे रे मैं तो भूल ही गया था। धनदत्त-क्या ? चन्दन-मेरी स्त्री ने मुझ से कहा है कि तक्षशिला की दुकानों में चीन देश का हलाहल मिलता है -थोडा-सा लेते आना। और, आपकी श्रीमती जी ने भी मांगा है-तंगण देश का सोने का चूर्ण- सत्ताइस थैली । धनदत्त-(लम्बी सांस लेकर) किन्तु जटाधारी जी तो कहते है कि मैं कुछ कर ही नही सकता । दौड़कर जाओ चन्दन दोनो से यही कहते आओ। चन्दन-किन्तु बिना थैली के घर नहीं लौट सकते-समझा। धनदत्त-अरे चन्दन कोई उपाय बता क्या करूँ ? मुहूत्तं तो निकल ही गया। अब चैत्य-वृक्ष के नीचे विश्राम करूं या घर ही लौट चलूँ। फिर कोई दूसरा शकुन देखकर यात्रा होगी। आजीवक-तुम, नियति के क्रीडा कन्दुक-कुछ न कर सकोगे। चन्दन–श्रीमान् ! इस अकर्मण्य को मुंहतोड उत्तर देने के लिए आप यही चित्त लेट जाइये और कुछ कर दिखाइये। (धनदत्त लम्बी सांस लेकर इधर-उधर देखता हुआ बैठ जाता है) चन्दन-हाँ-हाँ लेट जाइये-कहता हूँ न ! कन्दुक की ऐसी-तैसी-क्यों महाराज ! अब कोई उछाले इस गेद को। धनदत्त -(लेटता हुआ) अरे चन्दन ! यह साधु सच तो नही कह रहा है ? पुरुष क्यों सचमुच कुछ नही कर सकता। चन्दन--हो भी सकता है। ठहरिए, मैंने कही पढ़ा है। ऐ, वह पंक्ति--'न कर्तुत्वं त कर्मोपि' ठीक तो आप कुछ नही कर सकते हैं। आजीवक-चन्दन | तुम तो खूब घिसे हुए हो । [ौड़ कर वासी आती धनदत्त से ठोकर खाकर गिरते-गिरते बचती है] दासी-हत्तेरे की ! स्वामी कहाँ है चन्दन । ५४२ : प्रसाद वाङ्मय