पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६३

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चन्दन-अन्धी-देखती नहीं, किसे ठोकर लगा रही है। [वासी कान पकड़ कर दांतों से जीभ दबा लेती है] आजीवक-क्यों भाई सार्थवाह कन्दुक बने कि नहीं। धनदत्त-ठहरो जी (वासी से) क्या कहती है रे, अब और कुछ-- दासी-स्वामिनी ने कहा है सात जोड़ी काश्मीर का सूक्ष्म कम्बल जिस पर स्वर्ण तारों से फूल बने हों और चीन की सत्रह रेशमी साड़ियां ले आने के लिए कहना मैं भूल गई थी। [धनवत्त सांस लेकर उठ बैठता है और कहता है 'भाग यहाँ से- दासी जाती है । दूसरी ओर से एक राजपुरुष आता है। उधर आजीवक को देखता हुआ फिर धनदत्त की ओर झुकता है। धनदत्त फिर सांस खींचता हुआ लेट जाता है] राजपुरुष--यह क्या ! सार्थवाह धनदत्त को किसी ने मारा-पीटा है क्या ? धनदत्त--(रुआंसे स्वरसे) मारा-पीटा ही नहीं बिल्कुल हत्या की गई है। कुछ करने लायक नही रह गया। राजपुरुष-ओ हो ! (समीप से देखकर) कही चोट तो नही दिखलाई देती-जी। धनदत्त-बहुत-सी चोटें ऐसी होती हैं जो दिखाई नही पड़ती। चन्दन-जैसे आंख की चोट । धनदत्त-ओ-वह तो जात-पात की बात है। नाखों से लगी हुई चोट को आंखें देखने देंगी? चन्दन-और बात की चोट । राजपुरुष-तो फिर हुआ क्या ? किसने क्या कहा ? धनदत्त-देखते नहीं सामने भदन्त खड़े हैं। पूरे छदन्त । राजपुरुष-क्या इन्होंने शाप दिया है ? आजीवक-यह अज्ञानी है। सन्दिग्ध है। राजपुरुष-हूँ, सुनो सार्थवाह ! महाराज नन्द ने कहा है कि उस बार समुद्र पार के वाणिज्य पर तुमने बीस प्रतिशत कर नहीं दिया था। इसलिए अबकी बार जब तुम नगर के बाहर जा रहे हो तो सत्रह नीलमणियां, पांच गजमुक्ताएँ, तीन सर्पमणियां लेकर ही आना । यही कहने के लिए मैं भेजा गया हूँ। धनदत्त-आय-कहते क्या हैं आप ! राजपुरुष-जो तुम सुन रहे हो। धनदत्त-इसके सुनने पर कान फटने से बच जायेंगे? चन्द्रगुप्त : ५४३