पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६४

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राजपुरुष-मैं यह सब कुछ नही जानता । धनदत्त--किन्तु देखिए भदन्त कहते है कि पुरुष कुछ कर ही नही सकता- क्यों न! आजीवक-नियति जो करती है वही मनुष्य के लिए पथ्य है। मूखं मनुष्य ! व्यर्थ अपनी टांग अड़ाता है। राजपुरुष-अकर्मण्य भिक्षु ! यह क्या पाठ पढ़ा रहे हो। चन्दन-नियति यदि तुम्हारी टांग तोड दे ? भिक्षु जी ! आजीवक-तो तुम मुझे अपनी पीठ पर लाद कर मुझे जहाँ जाना है पहुंचा दोगे। चन्दन-और तुम्हारा वोझ ढोना मै न स्वीकार करूँ ? आजीवक -तो कदाचित् नियति तुम्हारी टांग भी तोड़ चुकी होगी। चन्दन-है -- है यह मुँह है कि अभिशापो का परनाला ! कहे देता हूँ मैं सेठ-वेठ नही हूँ। मै भी कुछ - समझा न । शाप देने का मुझे भी अधिकार है । (यज्ञोपवीत निकालने लगता है) आजीवक - (मुस्कराता हुआ) तुम कुछ हो यह तो मैं नहीं जानता था । राजपुरुष मुनो राजा की आज्ञा क्या है इसको तो तुम समझ गए होंगे ! धनदत्त --मब ममझ गया। किन्तु यह तो बताइए सर्पमणि क्या होगी वह विष से बुझी हुई वस्तु भला राना- राजपुरुष--अरे । तुमको नहीं मालग कि राजकुमारी का ब्याह पञ्चनद नरेश से होने की बात चल रही है। उममे उपहार देने के लिए इन मणियों की नितान्त आवश्यकता है। चन्दन-नितान्त । राजपुरुष-(घुड़क कर) चुप न रहोगे तो तुमको अभी- चन्दन (रुऑमा स्वर बनाकर) अपमान न करो मेरा। हाँ, मैं भी कभी, कोई, कुछ, कही या था। अपना-अपना समय है धनदत्त की देख-रेख करने उसकी सहायता के लिये मे परदेश जा रहा हूँ। नही तो... राजपुरुष-मैं ना तुम्हारा दु.ख बहुत महज मे छुडा सकता हूँ। चले-चलो मेरे माथ। जहाँ अन्धकृप मे तीन माम रहे कि यह सब रोग छूट जायेंगे। बड़े-बड़े लोगों की अमात्यो और मन्त्रियो की भी वहां चिकित्सा हो रही है। चन्दन -(काँप कर) दुहाई है - भाई धनदत्त ! मुझे बचाओ इस यमदूत से । कुछ दे-लेकर रक्षा करो। धनदत्त-किन्तु इतनी बड़ी उपहार सृची। ओह यह तो सूची की तरह चुभने लगती है। (राजपुरुष से) क्यो महोदय ! क्यों न मैं ही इन सब वस्तुओं को ५४४:प्रसाद वाङ्मय