पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६५

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? पञ्चनद नरेश तक पहुंचा दूं, जहां राजकुमारी का ब्याह होने वाला है। आप भी झंझट से बच जायेगे। यहां आते समय कही मेरे सार्थ पर डाका पड गया, तब ? राजपुरुष - नही ! यहाँ वे सब मणियां भाण्डागारिक की परीक्षा में पहले आवेंगी। स्मरण रखना, मैं जाता हूँ। चन्दन-मुझे छोड़े जाइए। आपका बडा यश गाता फिरूंगा। हे महापुरुष- देवपुरुष-राजपुरुष–मेरे पूर्व पुरुष ! क्षमा ! [दण्डवत करता है । राजपुरुष का हंसते हुए प्रस्थान] धनदत्त-चन्दन ! देखता हूँ कि जाना नही होगा। चन्दनः -यह भी अच्छा ही है (आजीवक से) क्यो महात्मा जी ! आपकी क्या सम्मति है? आजीवक-नियति तुम लोगो को अपने पथ पर आप ही ले चलेगी। चन्दन-और आपको। आजीवक -मै तो भाई पहले ही कह चुका । मनुष्य कुछ नही कर सकता है । चले चलो आँख मूंद कर । धरदत्त आज की यात्रा मे तो देखता हूँ कि बडी बाधाएँ हे, हे न चन्दन-अरे भाई अब रात यही चैत्य-वृक्ष के नीचे बितानी होगी। तो चलो वही चलें। धनदत्त--किन्तु ग्यारह पग तो दक्षिण श्वाँम मे चल नही मका पांच ही चलकर बैठ गया। अब ? चन्दन-यही तो मैं भी विचार कर रहा हूँ। आजीवक-तो फिर आप लोग विचार कीजिए (जाने का उपक्रम करता है)। धनदत्त -वाह आप चले कहां ! आज की रात तो 'पको यही हम लोगो के साथ बितानी पड़ेगी। देखो हम लोगो के साथी तो वही रुके रहेगे रात को हम लोग अकेले उस वृक्ष के नीचे कैसे रहेगे ? तुम रहोगे तो भूत लोग तुम्हे अपना भाई-बन्धु समझ कर हम लोगो को न सतावेगे । आजीवक-परन्तु उस वृक्ष के नीचे चलो तब तो। धनवत्त-हाँ रे चन्दन ! सूची मे कुछ भूल न हो। चन्दन-अरे ! चलो तो बैठकर लिख भी लें। धनदत्त-पर चलें तो कैसे । कैसे मुहूत्तं मे निकले हैं भगवान् । आजीवक-मैं बताऊँ पर से न चलो रे कर चलो। धनदत्त-ऐं ! चन्दन-ठीक तो! चन्द्रगुप्त : ५४५