पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६६

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धनदत्त-अरे मेरी तोंद तो देख लो तब कहो ! छिल जाय तो! चन्दन-फिर मुहूर्त की व्यवस्था ! धनदत्त--अच्छा फिर (पेट के बल घिसकने लगता है)। दृश्या न्त र षष्ठ दृश्य [मगध में नन्द की राजसभा | राक्षस और सभासदों के साथ नन्द] नन्द-हो, तब ? राक्षस दूत लौट आये और उन्होने कहा कि पञ्चनद-नरेश को यह सम्बन्ध स्वीकार नहीं। नन्द-क्यों? राक्षस-प्राच्य-देश के बौद्ध और शूद्र राजा की कन्या से वे परिणय नही कर सकते। नन्द--इतना गर्व ! राक्षस -यह उनका गर्व नही, यह धर्म का दम्भ है, व्यंग है। मैं इसका फल चखा दूंगा। मगध-जैसे शक्तिशाली राष्ट्र का अपमान करके कोई यों ही नही बच जायेगा । ब्राह्मणो का यह [प्रतिहारी का प्रवेश प्रतिहारी-जय हो देव, मगध से शिक्षा के लिए गये हुए तक्षशिला से स्नातक आये है। नन्द-लिवा लाओ। [प्रतिहारी का प्रस्थान | चन्द्रगुप्त के साथ कई स्नातकों का प्रवेश] स्नातक-राजाधिराज की जय हो । नन्द-स्वागत ! अमात्य वररुचि अभी नही आये, देखो तो ! [प्रतिहारी का प्रस्थान और वररुचि के साथ प्रवेश] वररुचि -जय हो देव, मैं स्वयं आ रहा था। नन्द-तक्षशिला से लौटे हुए, स्नातकों की परीक्षा लीजिये । वररुचि- राजाधिराज, जिस गुरुकुल में मैं स्वयं परीक्षा देकर स्नातक हुआ हूँ, उसके प्रमाण की भी पुनः परीक्षा, अपने गुरुजनों के प्रति अपराध करना है। नन्द -किन्तु राजकोष का रुपया व्ययं ही स्नातकों को भेजने में लगता है या इसका सदुपयोग होता है, इसका निर्णय कैमे हो ? राक्षस-केवल सद्धर्म की शिक्षा ही मनुष्यों के लिए पर्याप्त है ! और वह तो मगध में ही मिल सकती है। ५४६: प्रसाद वाङ्मय