पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६७

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[चाणक्य का सहसा प्रवेश | त्रस्त दौवारिक पीछे-पीछे आता है ] चाणक्य-परन्तु बौद्धधर्म की शिक्षा मानव-व्यवहार के लिए पूर्ण नही हो सकती, भले ही वह संघ विहार मे रहने वालों के लिए उपयुक्त हो। नन्द-तुम अनधिकार चर्चा करने वाले कोन हो जी ? चाणक्य-तक्षशिला से लोटा हुआ एक स्नातक ब्राह्मण । नन्द-ब्राह्मण ! ब्राह्मण ! जिधर देखो कृत्या के समान इनकी आतंक ज्वाला धधक रही है। चाणक्य-नही महाराज ! ज्गला कहाँ ? भस्मावगुण्ठित अंगारे रह गये है ! राक्षस-तब भी इतना ताप ! चाणक्य-वह तो रहेगा ही ! जिस दिन उसका अन्त होगा, उसी दिन आर्यावर्त्त का ध्वंस होगा। यदि अमात्य ने ब्राह्मण-विनाश करने का विचार किया हो तो जन्मभूमि की भलाई के लिए उसका त्याग कर दें, क्योकि राष्ट्र का शुभ- चिन्तन केवल ब्राह्मण ही कर सकते है। एक जीव की हत्या से डरने वाले तपस्वी बौद्ध, सिर पर मंडराने वाली विपत्तियो से-रक्त-समुद्र की आंधियों से-- आर्यावर्त की र रने में असमर्थ प्रमाणित होगे। नन्द-ब्राह्मण | तुम बोलना नही जानते हो तो चुप रहना सीखो। चाणक्य महाराज, उसे सीखने के लिए मैं तक्षशिला गया था और मगध का सिर ऊंचा करके उसी गुरुकुल मे मैंने अध्यापन का कार्य भी किया है । इसलिए मेरा हृदय यह नही मान सकता कि मैं मूर्ख हूँ। नन्द-तुम चुप रहो। चाणक्य-एक बात कहकर महाराज राक्षस-क्या? चाणक्य-यवनो की विकटवाहिनी निषध-पर्वत माला तक पहुंच गई है--- तक्षशिलाधीश की भी उसमे अभिसन्धि है। संभवतः समस्त आर्यावर्त पादाक्रान्त होगा। उत्तरापथ मे बहुत-से छोटे-छोटे गणतन्त्र है, वे उस सम्मिलित पारसीक- यवन-बल को रोकने में असमर्थ होगे। अकेले पर्वतेश्वर ने साहस किया है, इसलिए मगध को पर्वतेश्वर की सहायता करनी चाहिये । कल्याणी-(प्रवेश करके) पिताजी, मैं पर्वतेश्वर के गर्व की परीक्षा लूंगी। मैं वृषल-कन्या हूँ ? उस क्षत्रिय को यह सिखा दूंगी कि राज-कन्या कल्याणी किसी क्षत्राणी से कम नही । सेनापति को आज्ञा दीजिये कि आसन्न गान्धार-युद्ध मे मगध की सेना अवश्य जाय और मै स्वयं उसका ञ्चालन करूंगी। पराजित पर्वतेश्वर को सहायता देकर उसे नीचा दिखाऊँगी। [नन्द हंसता है] चन्द्रगुप्त : ५४७