पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५६९

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तरह चलेगी, उसमें नन्द-वंश समूल उखड़ेगा। नियति-सुन्दरी के भवों में बल पड़ने लगा है। समय आ गया है कि शूद्र राजसिंहासन से हटाये आर्य और सच्चे भत्रिय मूर्धाभिषिक्त हों। नन्द-यह समझ कर कि ब्राह्मण अवध्य है तू मुझे भय दिखलाता है। प्रतिहारी, इसकी शिखा पकड़ कर इसे बाहर करो। [प्रतिहारी उसको शिखा पकड़कर घसीटता है । वह निरशंक और दृढ़ता से कहता है] चाणक्य-खींच ले ब्राह्मण की शिखा ! शूद्र के अन्न से पले हुए कुत्ते? खींच ले ! परन्तु यह शिखा नन्दकुल की काल-सर्पिणी है, यह तब तक न बन्धन में होगी, जब तक नन्द-कुल निश्शेष न होगा। नन्द-इसे बन्दी करो। [चाणक्य बन्दी किया जाता है। दृश्यां त र सप्तम दृश्य [सिन्धु-तट पर अलका और मालविका] मालविका राजकुमारी ! मैं देख आयी, उद्भाण्ड' में सिन्धु पर सेतु बन रहा है। युवराज स्वयं उसका निरीक्षण करते हैं। और मैंने उस सेतु का एक मानचित्र भी प्रस्तुत किया था। यह कुछ अधूरा-सा रह गया है पर इसके देखने से कुछ आभास मिल जायगा। अलका- सखी ! बड़ा दुःख होता है, जब मैं यह स्मरण करती हूँ कि स्वयं महाराज का इसमें हाथ है । देखू तो तेरा मानचित्र ! [मालविका मानचित्र देती है, अलका उसे देखती है, एक यवन सैनिक का प्रवेश-वह मानचित्र अलका से ले लेना चाहता है] अलका- दूर हो दुर्विनीत दस्यु ! (मानचित्र अपनी कंचुकी में छिपा लेती है) यवन-यह गुप्तचर है, मैं इसे पहचानता हूँ। परन्तु सुन्दरी ! तुम कौन हो जो इसकी सहायता कर रही हो? अच्छा हो कि मुझे मानचित्र मिल जाय, और मैं इसे सप्रमाण बन्दी बनाकर महाराज के सामने ले जाऊँ। अलका-यह असम्भव है। पहले तुम्हें बताना होगा कि तुम यहाँ किस अधिकार से यह अत्याचार करना चाहते हो ? यवन-मैं ? देवपुत्र विजेता अलक्षेन्द्र का नियुक्त अनुचर हूं और तक्षशिला की मित्रता का साक्षी हूँ। यह अधिकार मुझे गान्धार-नरे दिया है। १. वर्तमान अटक से सोलह मील उत्तर जहां से पहले सिन्धु को पार करते थे। (सं.) चन्द्रगुप्त : ५४९