पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७१

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[यवन के साथ युद्ध-सिंहरण घायल होता है परन्तु यवन को उसके भीषण प्रत्याक्रमण से भय होता है, वह भाग निकलता है] अलका -वीर । यद्यपि तुम्हे विश्राम की आवश्यकता है, परन्तु अवस्था बड़ी भयानक है । वह जाकर कुछ उत्पात मचावेगा। पिताजी पूर्णरूप से यवनों के हाथ मे आत्म-समर्पण कर चुके है । सिहरण -(हंसता और रक्त पोंछता हुआ) मेरा काम हो गया राजकुमारी। मेरी नौका प्रस्तुत है, मैं जाता हूँ। परन्तु बडा अनर्थ होना चाहता है, क्या गान्धार- नरेश किसी तरह न मानेगे? अलका कदापि नही, पर्वतेश्वर से उनका वैर बद्धमूल है । सिहरण अच्छा देख जायगा जो कुछ होगा। देखिए मेरी नौका आ रही है अब विदा मांगता हूँ। [सिन्धु में नौका आती है । घायल सिंहरण उस पर बैठता है | सिंहरण और अलका दोनों एक दूसरे को देखते हैं] अलका मालविका भी तुम्हारे माथ जायगी-तुम अकेले जाने योग्य इस समय नह हो। सिहरण-जमी आज्ञा । बहुत शीघ्र फिर दर्शन करूंगा। जन्मभूमि के लिए ही जीवन है। फिर जब आप-सी सुकुमारियां इसकी सेवा में कटिबद्ध है तब मैं पीछे कब रहूँगा । अच्छा नमस्कार । [मालविका नाव में बैठती है / अलका सतृष्ण नयनों से देखती हुई नमस्कार करती है | नाव चली जाती है | सैनिकों के साथ यवन का प्रवेश यवन--निकल गया मेर। अहेर । यह गद प्रपञ्च इमी मणी का है। इसको बन्दी बनाओ। (सैनिक अलका को देखकर सिर झुकाते हैं) वन्दी करो सैनिक । सैनिक-मै नही कर सकता। यवन-क्यो गान्धार-नरेश ने तुम्हे क्या आज्ञा दी है ? सैनिक-यही कि आप जिसे कहे, उसे हम लोग बन्दी करके महाराज के पास ले चले। यवन-फिर विलम्ब क्यो: [अलका संकेत से वजित करती है ] सैनिक-हम लोगो की इच्छा । यवन-तुम राजद्रोही हो । सैनिक-कदापि नही, पर यह काम हम लोगो से न हो सकेगा। चन्द्रगुप्त : ५५१