पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७५

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राजा--नही, कहो-हाँ पिताजी । अलका, कब तक तुम्हें सिखाता रहूँ! अलका-नही महराज ! राजा-फिर महाराज ! पागल लड़की-कह, पिता जी ! अलका-वह कैसे महाराज ! न्यायाधिकरण पिता-संबोधन से पक्षपाती हो जायगा। राजा- यह क्या? यवन--महराज ! मुझे नही मालुम कि ये राजकुमारी है। अन्यथा मै, इन्हें बन्दी न बनाता। राजा-सिल्यूकस ! तुम्हाग मुख कन्धे पर से बोल रहा है । यवन ! यह मेरी राजकुमारी अलका है। आ बेटी ! (उसकी ओर हाथ बढ़ाता है | वह अलग हट जाती है) अलका-नही महाराज ! पहले न्याय कीजिये । यवन-उद्भाण्ड पर बंधने वाले पुल का मानचित्र इन्होने एक स्त्री से बनवाया है, और जब उसे मांगने लगा, तो एक युवक को देकर इन्होंने उसे हटा दिया । मैंने यह "पाचार आप तक निवेदन किया और आज्ञा मिली कि वे बन्दी किये जायें; परन्तु वह युवक निकल गया । राजा--क्यो बेटी | मानचित्र देखने की इच्छा हुई थी ? (सिल्यूकस से) तो क्या चिन्ता है, जाने दो-मानचिन तुम्हारा पुल बंधना गेक नही सकता। अलका-नही महाराज | मानचित्र एक विशेष कार्य से बनवाया गया है-वह गान्धार की लगी हुई कालिख छुड़ाने के लिए"" राजा-सो तो मैं जानता हूँ बेटी | तुम क्या कोई नासमझ हो। [वेग से आंभीक का प्रवेश] आंभीक-नही पिताजी, आपके राज्य मे एक भयानक षड्यन्त्र चल रहा है और तक्षशिला का गुरुकुल उमका केन्द्र है। अलका उस रहस्यपूर्ण कुचक्र की कुंजी है। राजा-क्यो अलका यह बात सही है ? अलका-सत्य है महाराज | जिस उन्नति की आशा मे आभीक ने यह नीच कर्म किया है, उसका पहला फल यह है कि आज मै बन्दिनी हूँ सम्भव है कल आप होंगे और परसों गान्धार की जनता बेगार करेगी। उनका मुखिया होगा आपका वंश-उज्ज्वलकारी-आभीक । यवन--सन्धि के अनुसार देवपुत्र का साम्राज्य और गान्धार मित्र-राज्य हैं, यह व्यर्थ की बात है। चन्द्रगुप्त : ५५५