पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७६

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आंभीक-सिल्यूकस ! तुम विश्राम करो। हम इसको समझ कर तुमसे मिलते हैं। राजा-परन्तु आंभीक ! राजकुमारी बन्दिनी बनायी जाय, वह भी मेरे ही सामने ! उसके लिए एक यवन दण्ड की व्यवस्था करे, यही तो तुम्हारे उद्योगों का फल है। अलका -महाराज | मुझे दण्ड दीजिये, कारागार मे भेजिये, नहीं तो मै मुक्त रहने पर यही करूंगी। कुलपुत्रों के रक्त से आर्यावर्त की भूमि सिंचेगी। दानवी बनकर जननी जन्म-भूमि अपनी सन्तान को खायेगी। महाराज | आर्यावर्त के सब बच्चे आभीक जैसे नही होंगे। वे इसकी मान-प्रतिष्ठा और रक्षा के लिए तिल-तिल कट जायेगे। स्मरण रहे, पवनो की विजयवाहिनी के आक्रमण को प्रत्यावर्तन बनाने वाले यही भारत-सन्तान होगे। सब बचे हुए क्षताग-वीर, गान्धार को भारत के द्वार-रक्षक को-विश्वासघाती के नाम से पुकारेगे और उसमे नाम लिखा जायगा मेरे पिता का-आह ! उसे सुनने के लिए मुझे जीवित न छोडिये । दण्ड दीजिये- मृत्युदण्ड ! आंभीक-इसे उन सबो ने खूब बहकाया है। राजनीति के खेल यह क्या जाने ! पिताजी, पर्वतेश्वर--उद्दण्ड पर्वतेश्वर ने जो मेरा अपमान किया है, उसका प्रतिशोध । राजा-हाँ बेटी। उसने स्पष्ट कह दिया कि, कायर आभीक से अपने लोक विश्रुत कुल की कुमारी का ब्याह न करूंगा। और भी उसने वितस्ता के इस पार अपनी एक चौकी बना ली है-जो प्राचीन सन्धियों के विरुद्ध है। अलका-तब महाराज । उस प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए जो लडकर मर नही गया वह कायर नही तो और क्या है। आंभीक--चुप रहो अलका । राजा-तुम दोनों ही ठीक बाते कर रहे हो, फिर मैं क्या करूं? अलका-तो महाराज | मुझे दण्ड दीजिये, क्योकि राज्य का उत्तराधिकारी आंभीक ही उसके शुभाशुभ की कसौटी है, मै भ्रम मे हूँ। राजा--मै यह कैसे कहूं? अलका -तब मुझे आज्ञा दीजिये, मै राज-मन्दिर छोड़कर चली जाऊं। राजा-कहाँ जाओगी और क्या करोगी अलका ? अलका-गान्धार मे विद्रोह मचाऊँगी। राजा-नही अलका, तुम ऐसा नही करोगी। अलका-करूंगी महाराज, अवश्य करूंगी। ५५६ : प्रसाद वाङ्मय