पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७७

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राजा-फिर में पागल हो जाऊँगा। मुझे तो विश्वास नही होता । आंभीक-और तब अलका, मै अपने हाथों से तुम्हारी हत्या करूंगा। राजा-नही आंभीक । तुम चुप रहो। सावधान ! अलका के शरीर पर जो हाप उठाना चाहता है, उसे मै द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारता हूँ। [आंभीक सिर नीचे कर लेता है] अलका-तो में जाती हूँ पिताजी। राजा-(अन्य मनस्क भाव से सोचता हुआ) जाओ (अलका चली जाती है)। आंभीक ! आंभीक-पिताजी। राजा-लौट आओ। आंभीक-इस अवस्था में तो लौट आता, परन्तु वे यवन सैनिक छाती पर खड़े हैं । पुल बंध चुका है । नही तो पहले गान्धार का ही नाश होगा। राजा-तब ? (निश्वास लेकर)-जो होना हो- सो हो। पर एक बात आंभीक-आज से मुझसे कुछ न कहता। जो उचित समझो, करो। मै अलका को खोजने जाता हूँ-गान्धार जाने और तुम जानो। [वेग से प्रस्थान] दृश्या न्त र दशम दृश्य [पर्वतेश्वर को राजसभा]] पर्वतेश्वर-आर्य चाणक्य ! आपकी बाते ठीक-ठीक नही समझ में आतीं। चाणक्य-कैसे आवेंगी, मेरे पास केवल बात ही है न, अभी कुछ कर दिखाने में असमर्थ हूँ। पर्वतेश्वर-परन्तु इस समय मुझे यवनों से युद्ध करना है, मै अपना एक भी सैनिक मगध नहीं भेज सकता। चाणक्य-निरुपाय हूँ-लोट जाऊँगा। नही तो मगध की लक्षाधिक सेना आगामी यवन-युद्ध में पौरव पर्वतेश्वर की पताका के नीचे युद्ध करती। वही मगध- जिसने सहायता मांगने पर पञ्चनद का तिरस्कार किया था। पर्वतेश्वर-हाँ, तो इस मगध-विद्रोह 11 केन्द्र कौन होगा ? नन्द के विरुद्ध कोन खड़ा होता है? चाणक्य-मौर्य-सेनानी का पुत्र चन्द्रगुप्त-जो मेरे साथ यहां आया है। चन्द्रगुप्त : ५५७