पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८

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जा रही है। वाह कैसा सुन्दर देश है ! मुझे इस भूमि से जन्मभूमि का-सा प्रेम होता जा रहा है । जिधर देखो नया दृश्य- श्यामल कुंज घने कानन ऊंचे शैलों की माला है। सिन्धुधार बह रही स्वच्छ जैसे फूलों की माला है। सतत हिमावृत शृंग बहाते इसमें सरिता धारा है। स्नेहमयी जननी के मन में जैसे करुणा धारा है। सुखद सूर्य उत्ताप शीत में वर्षा में जल धारा है। शरद गगन में रजत चन्द्रमा धनीभूत ज्यों पारा है। हरे भरे सब खेत, सरल मानव, सरला सब बाला हैं। देव समान उदार-वदन सब इनका ढंग निराला है। [एलिस का प्रवेश कार्नेलिया को देखकर एलिस--(स्वागत) वाह नया रंग है। पतंग बाढ़ पर है। (प्रगट) राजकुमारी ! कार्नेलिया-कौन ? एलिस, तू, आ गयी। देख इस दृश्य के देखने में मैं ऐसी तन्मय थी कि तेरा आना मुझे मालूम नहीं हुआ। एलिस-कुमारी ! सन्ध्या का दृश्य तो यों ही मनोहर होता है- अस्त हुये दिन-नाथ पीत कर कान्ति को। सरला सन्ध्या लगी बुलाने शान्ति को॥ सांसारिक कलनाद शान्त होने लगा। विभु का विमल विनोद व्यक्त होने लगा। कार्नेलिया -क्रमशः तारापुंज प्रकट होने लगे। सुधा कन्द के बीज विमल बोने लगे। उज्ज्वलतारे शान्त गगन भी नील है। प्रकृति ढाल में जड़े हीर के कील हैं। एलिस-किन्तु कुमारी समय का भी क्या ही प्रभाव है- हुआ काकरव क्लान्त, कोकिला खुल पड़ी। लगी बुलाने उसे आँख जिससे लड़ी। मलयानिल भी मधुर कथा का भार ले। चला मचलता हुआ सुमन का सार ले । कार्नेलिया-(बात बदलते हुए) सखी, वह सब क्या दिखायी पड़ रहा है ? एलिस-तरुश्रेणी में सोध सुशेल समान ये। नागरिकों के हैं प्रमोद उद्यान ये॥ १२:प्रसाद वाङ्मय