पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८१

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किस आकर्षण में खिंचे चले जा रहे जैसे काल अनेक रूप में चल रहा है- यही तो... [एनिसाक्रटीज़ का प्रवेश] एनिसाक्रटीज़-महात्मन् । दाण्डयायन-चुप रहो, सब चले जा रहे है, तुम भी चले जाओ। अवकाश नहीं -अवसर नही। एनिसाक्रटीज़--आप से कुछ.." दाण्डयायन-मुझ से कुछ मत कहो। कहो तो अपने-आप से ही कहो, जिसे आवश्यकता होगी सुन लेगा। देखते हो कोई किसी की सुनता है ? मै कहता हूँ-- सिन्धु के एक पिन्दु ! धारा मे न बहकर मेरी एक बात सुनने के लिए ठहर जा-- वह सुनता है ? ठहरता है ? कदापि नही । एनिसाक्रटीज--परन्तु देवपुत्र ने दाण्डयायन-- --देवपुत्र ? एनिसाक्रटीज--देवपुत्र----जगद्विजेता सिकन्दर ने आपका स्मरण किया है । आपका । गुगकर आपसे कुछ उपदेश ग्रहण करने की उनकी बलवती इच्छा है। दाण्डयायन-(हँसकर) भूमा का सुख और उसकी महना का जिसको आभासमात्र हो जाता है, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदर्शन नही अभिभूत कर सकते-दूत ! वह क्सिी बलवान की इच्छा का बीटा-कदुक नही बन सकता- तुम्हारा राजा अभी झेलम भी नही पार कर सका, फिर भी जगत् विजेता की उपाधि लेकर जगत को वंचित करता है। मैं लोभ से, सम्मान से या भय से किसी के पास नहीं जा सकता। एनिसाक्रटीज-महात्मन् ! ऐसा क्यो ? यदि न जाने m देवपुत्र दण्ड दें ? दाण्डयायन-मेरी आवश्यकताये परमात्मा की विभूति- प्रकृति पूरी करती है। उसके रहते दूसरो का शासन कैसा ? समस्त आलोक, चैतन्य और प्राणशक्ति, प्रभु की दी हुई है-मृत्यु के द्वारा वही इसको लौटा लेता है। जिस वस्तु को मनुष्य दे नही सकता, उसे ले लेने की स्पर्धा बढ़कर दूसरा दम्भ नही। मैं फल-मूल खाकर, अंजलि से जलपान कर, तृण-शय्या पर आँख बन्द किये सो रहता हूँ। न मुझसे किसी को उर है और न मुझको किसी से डरने का कारण है । तुम यदि हठात् मुझे ले जाना चाहो तो केवल मेरे शरीर को ले जा सकते हो, मेरे स्वतन्त्र आत्मा पर तुम्हारे देवपुत्र का भी अधिकार नहीं हो सकता । एनिसाकटीज़-बड़े निर्भीक हो ब्राह्मण जाता हूँ, यही कह दूंगा। (प्रस्थान) [एक ओर से अलका/दूसरी ओर से चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश/सब वन्दना करके सविनय बैठते हैं] . चन्द्रगुल ५६१