पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८३

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[सिकन्दर का सिल्यूकस, कार्नेलिया, एनिसाक्रटीज इत्यादि सहचरों के साथ प्रवेश/सिकन्दर नमस्कार करता है|सब बैठते हैं] दाण्ड्यायन -स्वागत अलक्षेन्द्र ! तुम्हें सुबुद्धि मिले। सिकन्दर-महात्मन् ! अनुगृहीत हुआ; परन्तु मुझे कुछ और आशीर्वाद चाहिये। दाण्ड्यायन-मैं और आशीर्वाद देने में असमर्थ हूं क्योंकि इसके अतिरिक्त जितने आशीर्वाद होंगे, वे अमंगलजनक होंगे। सिकन्दर-मैं आपके मुख से जय सुनने का अभिलाषी हूँ। दाण्ड्यायन-जयघोष तुम्हारे चारण करेंगे, हत्या, रक्तपात और अग्नि-काण्ड के लिए उपकरण जुटाने मे मुझे आनन्द नही। विजय-तृष्णा का अन्त पराभव में होता है, अलक्षेन्द्र ! राजसत्ता सुव्यवस्था से बढे तो बढ़ सकती है, केवल विजयों से नहीं। इसलिए अपनी प्रजा के कल्याण मे लगो। सिकन्दर --अच्छा (चन्द्रगुप्त को दिखाकर)-यह तेजस्वी युवक कौन है ? सिल्यूकस-यह मगध का एक निर्वासित राजकुमार है । सिकन्दर-मै आपका स्वागत करने के लिए अपने शिविर में निमन्त्रित करता हूँ। चन्द्रगुप्त -अनुगृहीत हुआ। आर्य लोग किसी निमन्त्रण को अस्वीकार नहीं करते। सिकन्दर-(सिल्यूकस से)-तुमसे इनका परिचय कब हुआ ? सिल्यूकस-इनसे तो मैं पहले ही मिल चुका हूँ। चन्द्रगुप्त-आपका उपकार मैं भूला नही हूँ। आपने व्याघ्र से मेरी रक्षा की थी, जब मैं अचेत पड़ा था। सिकन्दर -अच्छा तो आप लोग पूर्व परिचित हैं। तब ता सेनापति, इनके आतिथ्य का भार आप ही पर रहा। सिल्यूकस-जैसी आज्ञा। सिकन्दर-(महात्मा से)-महात्मन् ! लौटती बार आपका फिर दर्शन काँगा, जब भारत विजय कर लंगा। दाण्ड्यायन-अलक्षेन्द्र सावधान ! (चन्द्रगुप्त को दिखाकर) देखो यह भारत का भावी सम्राट् तुम्हारे सामने बैठा है। [सब स्तब्ध होकर चन्द्रगुप्त को देखते हैं और चन्द्रगुप्त आश्चर्य से कार्नेलिया को देखने लगता है।एक दिव्य आलोक] यव निका चन्द्रगुप्त : ५६३