पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय अंक प्रथम दृश्य [उद्भाण्ड में सिंधु-तट पर ग्रीक-शिविर के पास एक वृक्ष के नीचे कार्नेलिया कार्नेलिया-सिंधु का यह मनोहर तट जैसे मेरी आँखों के सामने एक नया चित्रपट उपस्थित कर रहा है। इस वातावरण में धीरे-धीरे उठती हुई प्रशान्त स्निग्धता जैसे हृदय मे घुम रही है। लम्बी यात्रा करके जैसे मै वही पहुँच गयी हूँ-जहाँ के लिए चली थी। यह कितना निसर्ग-सुन्दर है-कितना रमणीय है ! हां, आज वह भारतीय संगीत का पाठ -देखू भूल तो नही गयी ? (गाती है) अरुण यह मधुमय देश हमारा! जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा। सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरुशिखा मनोहर- छिटका जीवन हरियाली पर-मंगल कुकुम सारा। लघु सुरधनु से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे- उड़ते खग जिस ओर मुंह किये -समझ नीड़ निज प्यारा। बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा जल- लहरें टकराती अनन्त की-पाकर जहाँ किनारा। हेमकुम्भ ले उषा सबेरे भरती ढुलकाती सुख मेरे- मदिर ऊँघते रहते जब-जग कर रजनी भर तारा। अरुण यह मधुमय देश हमारा फिलिप्स--(प्रवेश करके) कैसा मधुर गीत है ! कार्नेलिया, तुमने तो भारतीय संगीत पर पूरा अधिकार कर लिया है, चाहे हम लोगो को भारत पर अधिकार करने मे अभी विलम्ब हो। कार्नेलिया -फिलिप्स ! यह तुम हो ! आज दारा की कन्या वाह्लीक जायगी ? फिलिप्स -दारा की कन्या ! नही कुमारी, साम्राज्ञी कहो ! कार्नेलिया-असम्भव है फिलिप्स ! ग्रीक लोग केवल देशों का विजय करके समझ लेते हैं कि लोगो के हृदय पर अधिकार कर लिया। वह देवकुमारी-सी सुन्दर बालिका साम्राज्ञी कहने पर तिलमिला जाती है। उसे यह विश्वास है कि वह एक महान् साम्राज्य की लूट में मिली हुई दासी है-प्रणय-परिणीता की पत्नी नहीं। 1 ५६४: प्रसाद वाङ्मय