पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 2 फिलिप्स-कुमारी । प्रणय के सम्मुख क्या साम्राज्य तुच्छ है ? कार्नेलिया-यदि प्रणय हो फिलिप्स-प्रणय तो मेरा हृदय पहचानता है । कार्नेलिया-(हंसकर) ओहो | यह तो बडी विचित्र बात है । फिलिप्स-कुमारी, क्या तुम मेरे प्रेम की हंसी उडाती हो कार्नेलिया- नही सेनापति । तुम्हारा उत्कृष्ट प्रेम बडा भयानक होगा, उससे तो डरना चाहिये। फिलिप्स-(गम्भीर होकर) में पूछने आया हूँ कि आगामी युद्धो से दूर रहने के लिए शिविर की सब स्त्रियां स्कन्धावार मे साम्राज्ञी के साथ जा रही हैं, क्या तुम भी चलोगी कार्नेलिया- नहीं सम्भवत पिताजी का यही रहना होगा, इसलिये मेरे जाने की आवश्यकता नही। फिलिप्स -(कुछ सोचकर) कुमारी | न जाने फिर कब दर्शन हो, इसलिए एक बार इन कोमल करो को चूमने की आज्ञा दो । कानालया-तुम मेरा अपमान करने का साहस न करो फिलिप्स ? फिलिप्स - प्राण देकर भी नही कुमारी परन्तु प्रेम अन्धा है। कार्नेलिया तुम अपने अन्धेपन मे दूसरे को ठुकराने का लाभ नही उठा सकते-फिलिप्स ! फिलिप्स-(इधर-उधर देखकर) यह नही हो मकता है- [कार्नेलिया का हाथ पकड़ना चाहता है|वह चिल्लाती है-रक्षा करो! रक्षा करो ! चन्द्रगुप्त प्रवेश करके फिलिप्स की गर्दन पकड़ कर दबाता है/वह गिरकर क्षमा मांगता है/चन्द्रगुप्त छोड़ देता है] कार्नेलिया -धन्यवाद- आर्यवीर । फिलिप्स - (लज्जित होकर) कुमारी, प्राथना करता हूँ कि इस घटना को भूल जाओ-क्षमा करो। कार्नेलिया -क्षमा तो कर दूंगी--परन्तु भूल नही सकती--फिलिप्स ! तुम अभी चले जाओ। (फिलिप्स नतमस्तक जाता है) चन्द्रगुप्त-चलिये, आपको शिविर के भीतर पहुंचा द । कार्नेलिया-पिताजी कहाँ हे ? उनसे यह बात कह देनी होगी, यह घटना- नही तुम्ही कह देना। चन्द्रगुप्त-ओह वे मुझे बुला गये है, मै जाता हूँ, उनसे कह दूंगा। कार्नेलिया-आप चलिये, मै आती हूँ (चन्द्रगुप्त का प्रस्थान)-एक घटना चन्द्रगुप्त : ५६५