पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८६

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हो गई, फिलिप्स ने विनती की उसे भूल जाने की, किन्तु उस घटना से और भी किसी का सम्बन्ध है, उसे कैसे भूल जाऊँ ! उन दोनों में श्रृंगार और रौद्र का संगम है वह भी आह-कितना आकर्षक है-कितना तरंग-संकुल है ! इसी चन्द्रगुप्त के लिए न उस साधु ने भविष्यवाणी की. है-भारत-सम्राट् होने की ! उसमें कितनी विनयशील वीरता है । (प्रस्थान) [कुछ सैनिकों के साथ सिकन्दर का प्रवेश] सिकन्दर-विजय करने की इच्छा क्लान्ति से मिटती जा रही है। हम तो इतने बड़े आक्रमण के समारम्भ में लगे हैं और यह देश जैसे सोया हुआ है, लड़ना जैसे इनके जीवन का उद्वेगजनक अंश नही। अपने ध्यान में दार्शनिक के सडश निमग्न है, सुनने है-पौरव ने केवल झेलम के पास कुछ सेना प्रतिरोध करने के लिए या केवल देखने के लिए रख छोड़ी है। हम लोग जब पहुंच जायेंगे तब वे लड़ लेगे। एनिसाक्रटीज-मुझे तो ये लोग आलसी मालूम पड़ते हैं । सिकन्दर-नही-नही, यहां के दार्शनिक की परीक्षा तो तुम कर चुके- दाण्ड्यायन को देखा न ! थोड़ा ठहरो, यहाँ के वीरों का भी परिचय मिल जायगा। यह अद्भुत देश है। एनिसाक्रटीज-परन्तु आंभीक तो अपनी प्रतिज्ञा का सच्चा निकला-प्रबन्ध तो उसने अच्छा कर रखा है। सिकन्दर-लोभी है-सुना है कि उसकी एक बहन चिढ़कर सन्यासिनी हो गई है। एनिसाक्रटीज-मुझे विश्वास नही होता, इसमें कोई रहस्य होगा। पर एक बात कहूंगा, ऐसे शैल-पथ में साम्राज्य की समस्या हल करना कहाँ तक ठीक है ? क्यों न शिविर में ही चला जाय ? सिकन्दर-एनिसाक्रटीज, फिर पसिपोलिस का राजमहल छोड़ने की आवश्यकता न थी, एकान्त में मुझे कुछ ऐसी बातों पर विचार करना है, जिन पर भारत-अभियान का भविष्य निर्भर है। मुझे उस नंगे ब्राह्मण की बातों से बड़ी आशंका हो रही है, भविष्यवाणियां प्रायः सत्य होती हैं। (एक ओर से फिलिप्स, आंभीक, दूसरी ओर से सिल्यूकस और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)-कहो फिलिप्स ! तुम्हें क्या कहना है ? फिलिप्स-आंभीक से पूछ लिया जाय । आंभीक-यहां एक षड्यन्त्र चल रहा है । फिलिप्स-और उसके सहायक हैं सिल्यूकस । सिल्यूकस-(क्रोध और आश्चर्य से)-इतनी नीचता ! अभी उस लज्जा- ५६६: प्रसाद वाङ्मय