पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८९

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द्वितीय दृश्य [झेलम-तट के वन-पथ में चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अलका] अलका--आर्य | अब हम लोगों का क्या कर्तव्य है ? चाणक्य-पलायन ! चन्द्रगुप्त-व्यंग न कीजिये गुरुदेव ! चाणक्य-दूसरा उपाय क्या है ? अलका-है क्यों नही? चाणक्य-हो सकता है-(दूसरी ओर देखने लगता है)। चन्द्रगुप्त-गुरुदेव ! चाणक्य-परिव्राजक होने की इच्छा है क्या? यही एक सरल उपाय है। चन्द्रगुप्त-नही, कदापि नही ! यवनो को प्रतिपद मे बाधा देना मेरा कर्तव्य है और शक्ति-भर प्रयत्न करूंगा। चाणक्य-यह तो अच्छी बात है । परन्तु सिंहरण अभी नही आया। चन्द्रगुप्त- उसे समाचार मिलना चाहिये । चाणक्य-अवश्य मिला होगा। अलका -यदि न आ मके ? चाणक्य-जब काली घटाओं से माकाश घिरा हो, रह-रहकर बिजली चमक जाती हो, पवन स्तब्ध हो, उमस बढ रही हो और आषाढ के आरम्भिक दिन हों, तब किस बात की सम्भावना होनी चाहिये? अलका-जल बरसने की। चाणक्य -ठीक उसी प्रकार-जब देश मे युद्ध हो, मालव सिहरण को समाचार मिला हो, तब उसके आने की भी निश्चित आशा है । चन्द्रगुप्त- -उधर देखिये-वे दो व्यक्ति कौन आ रहे है। [सिंहरण का सहारा लिये वृद्ध गांधारराज का प्रवेश] चाणक्य -राजन् ! गांधारराज-विभव की छलनाओ से वंचित एक वृद्ध ! जिसके पुत्र ने विश्वासघात किया हो और कन्या ने साथ छोड़ दिया हो -मैं वही-एक अभागा मनुष्य हूँ। अलका-पिताजी-(गले से लिपट जाती है) गांधारराज-बेटी अलका-अरे तू कहाँ भटा रही है ! अलका-कही नही पिता जी आपके छोटी-सी झोपड़ी बना रखी है, चलिये विश्राम कीजिये । चन्द्रगुप्त : ५६९