पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५९१

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सेनापति -तय जैसी आज्ञा हो !-(स्वगत) स्त्री की अधीनता वैसी ही बुरी होती है, तिस पर युद्धक्षेत्र में ! भगवान् ही बचावें। कल्याणी-मेरी इच्छा है कि जब पर्वतेश्वर यवन सेना द्वारा चारों ओर से घिर जाय, उस समय उसका उद्धार करके अपना मनोरथ पूर्ण करूं। सेनापति -बात तो अच्छी है। कल्याणी-और तब तक हम लोगो की रक्षित सेना-(रुककर देखते हुए) यह लो पर्वतेश्वर इधर ही आ रहा है । [पर्वतेश्वर का रण-वेश में प्रवेश] पर्वतेश्वर-(दूर दिखलाकर) वह किस गुल्म का शिविर है युवक ! कल्याणी-मगध-गुल्म का महाराज पर्वतेश्वर -मगध की सेना ! असम्भव ! उसने तो रण-निमन्त्रण ही अस्वीकृत किया था। कल्याणी-परन्तु मगध की बड़ी सेना में से एक छोटा-सा वीर युवकों का दल इस युद्ध के लिए परम उत्साहित था । स्वेच्छा से उसने इस युद्ध में योग दिया है । पर्वतश्वर-प्राच्य मनुष्यों में भी इतना उत्साह ! (हँसता है) कल्याणी-महाराज, उत्साह का निवास किसी विशेष दिशा में नहीं है । पर्वतेश्वर-(हंसकर) प्रगल्भ हो युवक परन्तु, जब रण नाचने लगता है, तब भी तुम्हारा यह उत्साह बना रहे तो मानूंगा। दो तुम बड़े सुन्दर सुकुमार युवक हो, इसलिए साहस न कर बैठना। तुम मेरी रक्षित सेना के साथ रहो तो अच्छा, समझान। कल्याणो-जैसी आज्ञा । [चन्द्रगुप्त, सिंहरण और अलका का वेश बदले हुए प्रवेश] सिंहरण-खेल देख लो खेल ! ऐसा खेल-जो कभी न देखा हो न सुना ! पर्वतेश्वर-नट ! इस समय खेल देखने का अवकाश नहीं। अलका-क्या युद्ध के पहले ही घबरा गये, सेनापति ! वह भी तो वीरों का खेल ही है। पर्वतेश्वर--बड़ी ढीठ है ! चन्द्रगुप्त -न हो तो नागों को दर्शन ही कर लो ! कल्याणी--बड़ा कौतुक है महराज ! इन नागों को ये लोग किस प्रकार वश में कर लेते हैं। चन्द्रगुप्त-(संभ्रम से) महाराज हैं-तब तो अवश्य पुरस्कार मिलेगा [संपेरों की सी चेष्टा करता है/पिटारी खोलकर सांप निकालता है] चन्द्रगुप्त : ५७१